दीपक जलाओ, प्रकाश फैलाओ
दीपक जलाओ, प्रकाश फैलाओ
सायंकाल होती तो घर के सब काम-काज ठप पड़ जाते। आग का 'अकाड़ा' जलाकर सब बैठते और अंधकार को मनमाना कोसते। कोई कहता भगवान को भी लगता है, बुद्धि नहीं थी, अंधकार बनाकर रख दिया, तो कोई कहता, इस अंधकार में तो दम घुटता है, भगवान ने हमारे साथ बड़ा अत्याचार किया। यह क्रम वर्षों चलता रहा पर उस परिवार के लोगों को अंधकार से बचने का उपाय न सूझा।।
बड़े बेटे का हुआ विवाह तब आई बहू । घर के सदस्यों में एक की वृद्धि हुई। पर यह छोटी सी वृद्धि भी बहुत बड़ी थी, क्योंकि बहू पढ़ी-लिखी और समझदार थी।
पहला दिन पहली साँझ। उसके पति ने कहा-"घर में इतना अंधकार है प्रिये! तुम्हारा स्वागत कैसे करें। इस दुष्ट अंधकार को भगवान न बनाता तो उसका क्या बिगड जाता।"
पति के भोलेपन पर पत्नी को हँसी आ गई। उसने कहा-"मेरे देवता! अंधकार कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, प्रकाश के न होने का ही दूसरा नाम अंधकार है।" पति था अनपढ उसे तब भी कुछ समझ में नहीं आया।
फिर तो बहू उठी और एक दीपक लाई। उसमें घर में से तेल डाला फिर थोड़ी रूई लाई। बत्ती बनाकर दिये में डाली और फिर उसे आग से जला दिया। वर्षों से घिरा घर का ढेर सारा अंधकार पल भर में सिमट कर न जाने कहाँ अस्त हो गया। घर के सबलोग हर्षातिरेक से झूम उठे, सबने बहू की आरती उतारी और उसका दही मिसरी से स्वागत किया।
आज का संसार ही अंधेरे में भटकते लोग हैं, उन्हें कोसने वाले वे लोग हैं, जो आज समाज के नेता हैं, बहू उन जाग्रत आत्माओं का प्रतीक है, जो संसार की वस्तुस्थिति को समझते हैं। अभी तक ऐसे प्रबुद्ध व्यक्तियों का समाज से विवाह नहीं हुआ, जब आज के विचारशील लोग समाज से विवाह कर लेंगे अर्थात अंधकार में भटकते हुए लोगों को प्रकाश देने की ठान लेंगे तो फिर अंधकार का ठहरना कठिन हो जाएगा।
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