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    सत्य के लिए क्रूरता का सामना


    सत्य के लिए क्रूरता का सामना 

    बगदाद के संत हंबल बंदी बने खलीफा के न्यायालय में खड़े थे। उनका मन बार-बार शासन की क्रूरता के प्रति सोच रहा था। वह बड़े असमंजस में थे, तभी द्वार पर पहरा देने वाले सिपाही ने आकर उनके कान में कहा-"हजरत! आज सच्ची वीरता दिखाने का दिन है और आप असमंजस में पड़े हुए हैं। मुझे आश्चर्य है कि आप पर कुरान का अपमान करने का आरोप लगाया गया है, जबकि आपने सारा जीवन कुरान की शिक्षाओं पर चलने में लगा दिया है। ऐसे महापुरुष की तो पूजा होनी चाहिए थी, जबकि उसके विपरीत कैदी बनाकर उपस्थित किया गया है। एक बार मैंने चोरी की, तो खलीफा ने एक हजार कोड़े की सजा सुनाई थी। सचमुच मैं चोर था, पर मैं अपनी जिद पर डटा रहा और हजार कोड़ों की मार सहकर भी उस चोरी का रहस्य न खुलने दिया। आखिरकार मुझे छोड़ दिया गया। जब मैं झूठ के लिए अपने कलेजे को इतना मजबूत कर सकता था, तो फिर सत्य बात के लिए आप इतने भयभीत क्यों होते हैं?"

    संत के मन पर छाया भय का भूत जाने कहाँ चला गया। उन्हें अंधकार में प्रकाश की एक किरण दिखाई देने लगी। वे बोले"सचमुच तुम ठीक ही कहते हो। तुमने समय पर मुझे जगा दिया, इसके लिए सदैव तुम्हारा आभारी रहूँगा।" और दूसरे ही क्षण संत ने खलीफा के न्यायालय में धर्माधों के रोष का बहादुरी के साथ सामना करने के लिए अपने को समर्थ पाया।

    दूसरे दिन खलीफा द्वारा पूछे गए सारे प्रश्नों का संत ने सहीसही उत्तर दे दिया। वह पहले ही सोच चुके थे कि अधिक से अधिक मृत्युदंड ही तो दिया जा सकता है। खलीफा ने हजार बेंत लगाने का आदेश सुना दिया। उनका शांत चेहरा जैसा था, वैसा ही बना रहा। न्यायालय के बाहर खड़े सैकड़ों व्यक्ति तरह-तरह की बातें कह रहे थे। नौकरों द्वारा कोड़े बरसाए जाने लगे। संत का शरीर चोट खाकर बेहोश हो गया। वह सत्य के लिए मरते दम तक शासन की क्रूरता को सहन करते रहे, पर उस चोर सिपाही के वचन को न भूले।

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