पक्षियों की रक्षा
पक्षियों की रक्षा
कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने आ गईं। शंख बजने लगे, घोड़े खुरों से जमीन खूदने और हाथी चिंघाड़ने लगे। कुरुक्षेत्र के समरांगण में सर्वनाश की तैयारी पूरी हो चुकी थी। ठीक तभी एक टिटहरी का आर्तनाद गूंज उठा।
दोनों शिविरों के मध्य एक छोटी सी टेकरी थी, उसी की खोह में उसका घोंसला था। उसकी आँखें अपने बच्चों की ओर लगी थीं और कान धनुषों की टंकार पर। उसे चिंता स्व-जीवन की नहीं, अपने बच्चों की थी और निस्सहाय पुकार के रूप में आकुल मातृत्व सारे घोंसले में बिखर गया था। कृष्ण के कानों तक यह पुकार पहुंची। असंख्य वीरों की बलि और युद्ध के भयंकर कोलाहल के बीच भी जिनकी बाँसुरी के स्वर कभी विचलित नहीं हुए थे, उन्हीं कृष्ण को इस टिटहरी के स्वर ने झकझोर डाला। वे दौड़े गए। एक पत्थर उठाकर घोंसले के द्वार पर सहेज दिया और वापस आकर अपना स्थान ग्रहण करते हुए सेनापति से कहा-"महावीर भीम, अब तुम युद्ध का बिगुल बजा सकते हो।"
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