परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता, वह तो निष्ठा का भूखा है
निष्ठा की भूख
शौरपुच्छ नामक वणिक ने एक बार भगवान बुद्ध से कहा"भगवान मेरी सेवा स्वीकार करें। मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं, वह सब आपके काम आएँ।" बुद्ध कुछ न बोले चुपचाप चले गए।
कुछ दिन बाद वह पुन: तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा-"देव! यह आभूषण और वस्त्र ले लें दुःखियों के काम आएँगे मेरे पास अभी बहुत सा द्रव्य शेष है।" बुद्ध बिना कुछ कहे वहाँ से उठ गए। शौरपुच्छ बड़ा दुखी था कि वह गुरुदेव को किस तरह प्रसन्न करे!
वैशाली में उस दिन महान धर्म-सम्मेलन था हजारों व्यक्ति आए थे। बड़ी व्यवस्था जुटानी थी। सैकड़ों शिष्य और भिक्षु काम में लगे थे। आज शौरपुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा, काम में जुट गया। रात बीत गई, सब लोग चले गए पर शौपुरच्छ बेसुध कार्य-निमग्न रहा। बुद्ध उसके पास पहुँचे और बोले-"शौरपुच्छ, तुमने प्रसाद पाया या नहीं।"शौरपुच्छ का गला रुंध गया। भाव-विभोर होकर उसने तथागत को साष्टांग प्रणाम किया। बुद्ध ने कहा-"वत्स, परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता, वह तो निष्ठा का भूखा है। लोगों को निष्ठाओं में ही वह रमण किया करता है, आज तुमने स्वयं यह जान लिया।"
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