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    प्रश्न--ओशो, क्या यह सच नहीं है कि आप एक बहुत अहम चीज को नजरंदाज कर गए कि सनातन परंपराओं में एक ही स्वयं ही प्रक्रिया है, जो हर नयी चीज को आत्मसात करने की क्षमता रखती है। और उस दृष्टि से आप देखें, तो आपकी विचार क्रांति जो उथल-पुथल लाएगी सोचने की दिशा में यह आप विरोध में नहीं है, बल्कि

    Question-Osho-is-it-not-true-that-you-have-overlooked-a-very-important-thing-that-there-is-only-one-process-in-the-eternal-traditions-which-has-the-capacity-to-assimilate-everything-new-And-from-that-point-of-view-it-is-not-against-you-in-the-direction-of-thinking-that-your-thought-revolution-will-bring-upheaval-but

     

    प्रश्न--ओशो, क्या यह सच नहीं है कि आप एक बहुत अहम चीज को नजरंदाज कर गए कि सनातन परंपराओं में एक ही स्वयं ही प्रक्रिया है, जो हर नयी चीज को आत्मसात करने की क्षमता रखती है। और उस दृष्टि से आप देखें, तो आपकी विचार क्रांति जो उथल-पुथल लाएगी सोचने की दिशा में यह आप विरोध में नहीं है, बल्कि 

    ओशो--यह सवाल नहीं है कि इसकी हम क्या व्याख्या करते हैं। इसे आप विरोध कहें, इसे आप समन्वय की प्रक्रिया कहें, यह सवाल भी नहीं है। सोचने का ढंग विचार को उकसाते नहीं हैं। विचार को मारने की तरफ भगवान है, तो फिर मेरी बात पर शक और संदेह और विचार करने का सोचने के ढंग विचारा को उकसाते नहीं हैं। विचार को मारने की तरफ बल देते हैं, क्योंकि अगर किसी व्यक्ति ने यह मान लिया कि कृष्ण जो कहते हैं, उसे मानने का मन ज्यादा होता है। अगर मैं वादा करूं कि मैंने भगवान को पा लिया है, या मैं भगवान हूं, तो फिर मैं आपको विचार को नुकसान ही पहुंचाता है। अगर आप ही मुझे मान लें कि यह आदमी भगवान है, तो फिर मेरी बात पर शक और संदेह और विचार करने का उपाय ___ कम हो जाता है। मेरा कहना कुल इतना है कि कोई व्यक्ति अथारिटी नहीं है।

            और अब यह हमारे खयाल में आएगा कि कोई अथारिटी नहीं है तभी हम सोचने को मजबूर होंगे, अन्यथा विचार की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अगर अथारिटी है और पुराना सारा चिंतन अथारिटेटिव है--वह यह मानकर चलता है कि एक आदमी तीर्थकर है, एक भगवान है, एक सर्वज्ञ है, उसने पा लिया है, और जान लिया है। वह जो कह रहा है वह दुथ है, तो फिर बाकी लोगों को कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। बाकी लोगों के तो मानने का सवाल है। पुराना सारा मन माननेवाला मन है। तो उसे लड़ाई कहें, समन्वय कहें, यह सवाल नहीं नहीं है। क्योंकि अंततः लड़ाई भी समन्वय ही लाती है। 

            अगर हम दोनों विरोध भी करें एक दूसरे का और अंततः जिद्दी और अहंकारी नहीं हैं, तो हम एक जगह पहुंच जाएंगे, जहां हमारा विरोध आत्मसात होगा और दोनों बातें एक हो जाएगी। वह बात न आपकी होगी फिर, न मेरी होगी, बल्कि दोनों के संघर्ष का अंतिम फल होगी। सारा विरोध भी, थीसिस, एंटीथीसिस की सारी प्रक्रिया भी, अंततः सिन्थीसिस पर ले जाती है। तो, समन्वय और विरोध का सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन समस्त समन्वय विरोध से ही होते हैं। कोई समन्वय बिना विरोध के नहीं आता। और जो समन्वय बिना विरोध के आने की कोशिश करता है, वह हमेशा मरा हुआ समन्वय होता है, वह समन्वय कभी सच्चा नहीं होता। क्योंकि समन्वय आने के लिए भी एंटीथीसिस से गुजर जाना एकदम जरूरी है। यह मैं नहीं कह रहा हं मैं जो कहता हं उससे नया मन पदा हो जाएगा। मैं यह कह रहा है कि पुराने मन के साथ अगर एक संघर्ष चले, तो एक नया मन पैदा होगा, जो न पुराने जैसा होगा, न उन लोगों जैसा होगा जो लोग संघर्ष चलाएंगे। 

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