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    प्रश्न--ओशो अगर विचार निरंतर है तो शाश्वत क्या है, और विचार का मतलब क्या है?

    Question-Osho-if-thought-is-constant-then-what-is-eternal-and-what-is-the-meaning-of-thought


     प्रश्न--अगर विचार निरंतर है तो शाश्वत क्या है, और विचार का मतलब क्या है? 

    ओशो--शाश्वत को खोजना ही विचार का मतलब है, और विचार निरंतर है। और एक सीमा आती है और की जहां विचार को पता चलता है कि और आगे जाना हो, तो विचार छोड़ देना पड़ेगा। विचार की अंतिम प्रक्रियाओं से गुजरकर यह बोध होता है कि एक जगह विचार भी छूट जाता है। लेकिन तब विश्वास नहीं आता। विश्वास तो विचार के पहले है। जो आदमी विचार करता ही नहीं, वह विश्वास करता है। जो व्यक्ति विचार का ट्राटेंड कर जाता है, वह जानता है--ही नोज। वह विश्वास नहीं करता है। जानने में और विश्वास करने में जमीन आसमान का फर्क है। जहां जानने का संबंध है, वहां विश्वास बिलकुल नहीं है। विश्वास की कोई बात ही नहीं है जानने में। यह इस पुराने माइंड को ही तोड़ना है। 

            यह मस्तिष्क खतरनाक सिद्ध हुआ है, हितकर सिद्ध नहीं है। क्योंकि मस्तिष्क ही नहीं है। जो सोच ही नहीं सकता, वह ठीक अर्थों में आदमी ही नहीं है। उसमें सोचना पैदा करना ही पड़ेगा। लेकिन पुराना धर्म उस आदमी को भी जगह देने की कभी नहीं सोच सकता। इसलिए पुराने धर्म ने मनुष्य को विकास में सहायता कम दी, मनुष्य के विकास को रोकने में सहयोगी बना। जो आदमी सोच नहीं सकता, उसको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन उसे पुराना धर्म विश्वास बनाकर संत भी बना सकता है। तो ईडियट भी परमहंस हो सकते हैं पुराने धर्म की दुनिया में। जो कुछ भी नहीं सोच सकता है, बिलकुल इंबेलाइल है, वह भी परमहंस हो सकता है। परमहंस इसलिए हो सकता है कि वह सोच नहीं सकता। वह निपट गंवारपन का काम कर रहा है पाखाने के पास बैठा हुआ है, पेशाब पी रहा है, उसमें कोई भेद नहीं है लेकिन उसे हम परमहंस भी कह सकता हैं। 

            मैं यह कह रहा हूं कि अगर गलत नहीं है--विचार ही मनुष्य की लक्षण है--तो फिर हेजीटेट करो, तब कोई बात ही नहीं है। फिर तुम पेड़ हो जाओ, जानवर हो जाओ। मैं यह कह रहा हूं कि पत्थर हो जाओ, फिर कोई हर्जा नहीं है। जिनको यह खयाल है कि सब फार्म भगवान के हैं, ठीक है, हो जाए कुछ भी। और मैं मानता हूं कि मनुष्य के भीतर कोई घटना घटी है, जो पत्थर के भीतर नहीं घट रही है। मनुष्य के भीतर कोई घटना घटी है जो परमात्मा को भी विकसित करने में, अविकसित करने में सहयोगी हुई है। वह जो मनुष्य की चेतना है, उसे हम कितना बल दे सके, कितनी गति दे सकें--दो रास्ते हो सकते हैं। या तो उस चेतना को हम रोकें, या उसे गति दें। मेरा कहना कुल इतना है इतना है कि पुराना मन उसको रोकनेवाला सिद्ध हुआ है। 

    -ओशो

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