प्रश्न--ओशो, मेरा प्रश्न यह है कि आपको जब ज्ञान हो गया, तो फिर ईश्वर की सत्ता से आपका विरोध क्यों है?
प्रश्न--मेरा प्रश्न यह है कि आपको जब ज्ञान हो गया, तो फिर ईश्वर की सत्ता से आपका विरोध क्यों है?
ओशो--सत्ता से कहां विरोध है? सिर्फ विश्वास से है। आप मेरा फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। मैं ईश्वर के विरोध में नहीं हूं। मुझसे ज्यादा ईश्वर के पक्ष में आदमी खोजना मुश्किल है। मैं ईश्वर की आस्था के विरोध में हूं। मेरा कहना इसलिए विरोध में है कि आस्थावान कभी ईश्वर को जान ही नहीं सकता।
प्रश्न--आप तो शब्दों की बारीकी बात कर रहे हैं?
ओशो--नहीं, नहीं, बारीकी शब्दों की नहीं बता रहा हूं। बिलकुल ही इििस्टक्ट अनुभव की ___ बात है दोनों की। ईश्वर पर विश्वास करने वाला आदमी ईश्वर को कभी नहीं जान सकता; क्योंकि विश्वास करने वाला कुछ जान ही नहीं सकता। विश्वास करनेवाला जानने की चेष्टा ही नहीं करता।
प्रश्न--ज्ञान के बाद नहीं?
ज्ञान के बाद तो विश्वास का सवाल ही हनी है। एक घटना मुझे याद आती है। एक जर्मन विचारक अरविंद से मिलने आया। उसने अरविंद से पूछा, इ यू बिलीव्ह इन गाड? अरविंद ने कहा, नो अब्सोलूटली नो। वह तो बहुत घबरा गया। उसने आश्चर्य से पूछा कि आप ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं? मैं तो यही सोचकर आया था कि ईश्वर को जाननेवाले के पास जा रहा हूं। तो अरविंद ने कहा, कि तुम पूछते ही गलत हो। तुम्हें पूछना चाहिए, यू यू नो गाड, पर तुम पूछते हो, डू यू बिलीव्ह? आई नो, बट आई डोंट बिलीव्ह। असल में नोइंग का बिलीव्हिग से कोई संबंध हनी है। उल्टी बातें हैं। हमेशा नाट नोइंग में बिलीव्हिग आती है। जब हम नहीं जानते हैं तो, बिलीव्ह करते हैं। जब मानते हैं तो बिलीव्ह का सवाल ही नहीं है। मैं इसमें बिलीव्ह थोड़े ही करता हूं कि वृक्ष है। मैं इसमें बिलीव्ह करता हूं कि भूत है। वृक्ष है, यह मैं जानता हूं। यह बात खत्म हो गयी। इसमें बिलीव्ह करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज है, यह मैं मानता हूं। इसमें बिलीव्ह करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज और वृक्ष मालूम हो रहे हैं कि हैं। जिस दिन आप भीतर के अनुभव में उतरते हैं, परमात्मा इस ड्रीमलैंड मालूम होती हैं। ईश्वर विरोध में मैं नहीं हूं, धर्म विरोधी मैं नहीं हूं। मेरा कहना यह है कि धर्म पर जो आस्था का आवरण है, उसका मैं विरोधी हं। ईश्वर का, आस्था का जो भाव है, उसका मैं विरोधी हूं।
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