गीता मित्र हो सके, कृष्ण मित्र हो सके, यही मैं चाह रहा है -ओशो
गीता मित्र हो सके, कृष्ण मित्र हो सके, यही मैं चाह रहा है -ओशो
प्रश्न--तो रूप क्या होगा?
ओशो--हां, रूप बहुत तरह के हम सोच सकते हैं। जरूरी नहीं है कि वह वैसा ही होगा, लेकिन कुछ अनुमान लगा सकत हैं। जैसा कि पुराना पुरा का पुरा मन किसी रूप में प्रामाणिक है, अथारिटी है, साक्षी है, विश्वास और आस्था पर खड़ा है। नए मन की अब कोई संभावना नहीं है कि वह आस्था, शास्त्र, विश्वास पर खड़ा हो। नया मन संदेह पर, विचार पर खड़ा होगा।
प्रश्न--क्या आप कुछ गाइड करेंगे?
ओशो--नहीं मैं किसी को गाइड नहीं कर रहा बात चित कर रहा हं मित्रों से, गाइड किसी को नहीं कर रहा। क्योंकि मैं मानता ही नहीं कि कोई किसी का गाइड हो सकता है। हम मित्र हो सकते हैं, हम बात कर सकते हैं।
प्रश्न--अभी आपने गीता का दृष्टांत दिया कुछ?
ओशो--यह मैं मना कह रहा हूं। यह जो तुम दूसरी बातें कह रहे हो, उसमें कोई मुझे झंझट नहीं है। गीता का दावेदार जो कृष्ण है, वह कहता है, आओ मेरी शरण में, और सब छोड़ दो, मेरी शरण में आ जाओ, तुम उपलब्ध हो जाओगे। इसे मैं इनकार करूंगा।
प्रश्न--यह तो साधन की सुगमता के लिए है।
ओशो--उसको मैं साधन भी नहीं कह रहा है। यही तो झगड़ा है। मैं यह कह रहा हूं कि जब भी कोई व्यक्ति किसी कि शरण में जाता है, तो आत्मघात कर लेता है। जो शरण में गया उसने आत्मघात किया, और जिसने शरण में बुलाया, वह आदमी दूसरे का मित्र नहीं है, वह दसरे को मिटा ही रहा है। गीता मित्र हो सके, कृष्ण मित्र हो सके, यही मैं चाह रहा है। कृष्ण गुरु हैं, गाइड हैं, मित्र नहीं है। कोई जैन हिम्मत नहीं करेगा, महावीर को मित्र कहने की। मीरा कह सकती है, सखा। पति भी कह सकती है, लेकिन मीरा का भी समर्पण भाव पूरा है। मैं कह रहा हूं कि समर्पण का भाव ही गलत है। किसी एक का किसी दूसरे के प्रति सरेंडर होने की बात ही गलत है।
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