अनुशासन भीतर से आना चाहिए- ओशो
अनुशासन भीतर से आना चाहिए- ओशो
सोरवान विश्वविद्यालय में, फ्रांस में बहुत उपद्रव चला। अध्यापाकों ने बहुत समझाने की कोशिश की। अध्यापकों ने जो समझाया, उसके उत्तर में लड़कों ने विश्वविद्यालय की सारी दीवारों पर एक वाक्य लिख दिया बड़े-बड़े अक्षरों में, प्रोफेसर, यू आर ओल्ड। आपको हम एक ही उत्तर देना चाहते हैं कि अध्यापाक गण, आप बूढे हो गए हैं और जो नया हो रहा है उसको आप नहीं समझ पा रहे हैं। आप समझाने की कोशिश फिजूल कर रहे हैं। उत्तर बहुत सांकेतिक है, अर्थपूर्ण है। सारी व्यवस्था पुरानी हो गयी है, सब ओल्ड हो गया है, और सब जरा जीर्ण हो गया है, और पांच हजार वर्ष के अनुभव से असफल हो गया, सफल भी नहीं। तो मैं जो कहना चाहता हूं वह यह कि अनुशासन एक तरह का होगा। होना चाहिए, वह भीतर से आए। हम युवकों को, बच्चों को आनेवाली पीढ़ी को, भीतर से तैयार कर सकें कि वे अनुभव करें। बाहर से तैयारी अब नहीं हो सकती।
आप मुझे सुनना चाहते हैं तो चुप बैठे हैं। यह भीतर से आया हआ अनुशासन है। इसमें कोई ऊपर से थोपने का सवाल नहीं है। एक बोलने वाला चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि चुप रहे, शांत रहो मेरी बात सुनो कि मैं क्या कह रहा हूं और बात चीज चल रही है और कोई सुनने को राजी नहीं है, और बात चीज होती जा रही है। वह अनुशासन ऊपर से थोपा जा रहा है। ठीक है, अगर आप बात चीज करते चले जा रहे हैं और मुझे नहीं सुनना है, तो आपको समझाने की जरूरत नहीं है, मेरे समझने की जरूरत है कि मैं बंद करूं और विदा हो जाऊं। आपको समझाने का क्या सवाल है? बात खत्म हो गयी है। मुझे जानना चाहिए कि लोग सुनने को राजी नहीं है, मुझे विदा हो जाना चाहिए। तो वह मुनि, वह समझाने वाला विदा होना नहीं चाहता। वह कह रहा है, चुप रहो, डंडे के बल पर चुप रहो। नर्क चले जाओगे अगर चुप नहीं रहोगे। वह आपको चुप करने की कोशिश करते हैं। खुद चुप हो जाए, नहीं सुनना है लोगों को, विदा हो जाए।
लोगों को सुनना होगा, चुप होंगे; नहीं सुनना होगा तो चुप नहीं होंगे। उन्हें सुनना होगा वो पकड़कर ले आएंगे कि हम सुनने को राजी हैं। नहीं सुनेंगे, बात खत्म हो गयी। सुनाना जरूरी भी क्या है? सुनने के लिए ही कोई तैयार न हो, तो सुनाना जरूरी कहां है? अगर अब तक यही था। यह समझाया जा रहा है कि जब कोई बोलता है, तो चुप रहो, चाहे वह कुछ भी बोल रहा हो। वह अनर्गल बोल रहा हो, तो भी चुप रहो। वह अब नहीं कहेगा, अब नहीं बोल सकता है वह, बोलनेवाले को जानना पड़ेगा कि बोलनेवाली बात होगी, तो ही सुनी जा सकती है। क्योंकि तब एक भीतरी अनुशासन पैदा होता है। जिसे सुनना है, वह अपनी श्वास तक रोक लेता है कि कहीं मैं चूक न जाऊं। यह एक भीतरी अनुशासन है। अब बाहरी अनुशासन नहीं चल सकता है।जीवन की सारी व्यवस्था में नहीं चल सकता है।
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