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    आदमी अनुयायी खोजता है- ओशो

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    आदमी अनुयायी खोजता है- ओशो

    महावीर ने क्या कहा है, उनके मुनि उनको दोहराए चले जा रहे हैं। उनमें से एक ने भी उसे जानने की फिकर नहीं कि है कि वह क्या है। क्योंकि वे महावीर की आलोचना करने में ही डर गए हैं, असमर्थ हो गये हैं। डर गए हैं कि महावीर की आलोचना तो हो ही हनीं सकती, महावीर तो सर्वज्ञ है जो कह दिया, वह ठीक है। वह इसलिए ठीक नहीं है कि वास्तव में ठीक है, वह इसलिए ठीक है कि महावीर ने कहा है, बुद्ध ने कहा, मुहम्मद ने कहा है या कि कृष्ण ने कहा है। वह ठीक होकर बैठ गया है, अब उसका प्रचार करना है। ऐसा आदमी विचारशील नहीं है। और ऐसा आदमी विचार तो कम पहुंचाता है, अविचार ज्यादा पैदा करता है। वह जिसको भी सिखा-पढ़ा कर राजी कर लेगा, उसने एक आदमी को और अविचार में ढाल दिया! एक आदमी की और बुद्धि नष्ट की। 

            मैं जो कह रहा हूं, कोई वैसा ही उसे सब तक पहंचा देना है, यह सवाल नहीं है। कोई जरूरत ही क्या है? एक आदमी को यह ठीक लग रहा है कह रहा है। वह सभी को ठीक लगे, यह अनिवार्य कहां है? इसकी मांग क्यों होनी चाहिए कि वह भी सभी को ठीक लगे? जानकर आप हैरान होंगे कि जिस आदमी को यह फिकर होती है कि जो मुझे ठीक लग रहा है, वह सब को ठीक लगना चाहिए, उस आदमी को भीतरी रूप से शक होता है कि जो ठीक लग रहा है, वह ठीक है या नहीं। वह दूसरों को समझाकर खुद कर्विस हो जाना चाहता है कि--नहीं जरूर ठीक है। जब इतने लोगों को ठीक लगने लगता है, तो गलत नहीं हो सकता है। इसलिए आदमी अनुयायी खोजता है। 

            फिर आदमी को अपने सत्य पर कोई श्रद्धा नहीं है, वह अनुयायी खोजता है। जितने अनुयायी बढ़ते जाते हैं, उतनी उसकी भी आस्था पक्की होती जाती है कि जब इतने लोगों को ठीक लग रहा है, तो बात ठीक होनी चाहिए। उसका करेज, उसका साहस बढ़ता चला जाता है। क्योंकि मैं तो अकेले आदमी की तरह ही कहना चाहता हूं। जो मुझे ठीक लग रहा है, वह मुझे ठीक ही लग रहा है। उसमें आप मेरे पास आते हैं या नहीं आते हैं, इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अकेले जंगल में बैलूंगा, तो वह उतना ही ठीक है, मेरे पास करोड़ आदमी इकट्ठे हो जाए, तो भी उतना ही ठीक है। उसमें रत्ती भर फर्क भीड़ से नहीं पड़ने का। 

    - ओशो

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