गुरु होना साधारण बात नहीं है, बहुत असाधारण घटना है - ओशो
गुरु होना साधारण बात नहीं है, बहुत असाधारण घटना है - ओशो
गुरु कह रहे हैं कि सम्मान दो, क्योंकि मैं गुरु हूं। यह बात कहना ही गलत है। जो गुरु यह कहे कि मुझे सम्मान दो, तो जानना चाहिए कि वह गुरु होने के योग्य न रहा। यह कोई कहने की बात है? यह मानना पड़ेगा? उसे गुरु होना सिद्ध करना चाहिए। वह सिद्ध कर दे, और विद्यार्थी पर नहीं छोड़ना चाहिए कि वह शिष्य होना सिद्ध करे। क्योंकि शिष्य अभी-अभी आया है, नया-नया है। उस पर नहीं छोड़ा जा सकता है यह मामला। वह अभी दुनिया शुरू कर रहा है। यह मामला, यह जिम्मेदारी, यह रिस्पासिबिलिटी उसकी है जो सिद्ध करे कि मैं गुरु हूं। तो, मेरा मानना है कि गुरु अगर सिद्ध कर दे कि वह गुरु है, तो शिष्य में एक भीतरी डिसाइपलशिप, जिसे कहना नहीं पड़ता है, एक भीतरी शिष्यत्व पैदा होना शुरू होता है, जिसमें सम्मान है, जिसमें अपमान असंभव है। क्योंकि जिससे हमने कुछ भी पाया है उसका अपमान बिलकुल असंभव है। लेकिन जिससे कुछ भी न पाया हो, जो सिर्फ तनख्वाह पा रहा हो, और मशीन की तरह आकर कुछ बोल जाता हो, और जिससे हमारा कोई आंतरिक संबंध न हो, कोई भीतरी नाता न बनता हो: उसको हम कुलपति कहते हैं।
विश्वविद्यालय के प्रधान को हम कुलपति कहते हैं। कुलपति का मतलब है घर का बड़ा। और उसको तो लड़कों के नाम तक भी पता नहीं हैं कि कौन लड़का पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता है। फैक्ट्री है युनिवर्सिटी कुल। कोई घर तो नहीं है, तो वाइस चांसलर का मैनेजिंग डायरेक्टर या ऐसा ही कोई नाम देना चाहिए। एक फैक्ट्री है युनिवर्सिटी जहां हम धंधा चला रहे हैं पड़ने का। एक फैक्ट्री है, वहां शिफ्टिंग चल रही है, सुबह, दोपहर, सांझ फैक्ट्री की शिफ्ट जैसे बदलती है, जैसे काम चल रहा है वहां, नौकरी पेशा लोगों का। कुलपति पुराना शब्द है, बड़ा अर्थपूर्ण रहा है। घर के बड़े का नाम था, जो कुल के पिता कि तरह था। वह अपने बच्चों के साथ जी रहा था। उनकी चिंता कर रहा था--बीमारी की, स्वास्थ्य की, समझ की उनके ज्ञान की, सब तरह की चिंता करता था। वह उनके लिए फिकर करता था जो रात में बीमार पड़ते थे, उनकी खाट पर आकर रात भर बैठा भी रहता था। वह कुलपति था, तो समझ में आता था। उसके प्रति आदर रहा होगा। वह अनिवार्य है। उसको माना नहीं गया होगा। अब हम उसे कुलपति कहते हैं जो नाम से कुलपति है, लेकिन जिसका कुलपति होने से कुल जमा इतना संबंध है कि यह राजनीतिक तिकड़म में जुट गया है और चुनाव जीत गया है।
तो, कुलपति होना कोई चुनाव से हो सकता है? ऐसा तो कुल पिता के लिए भी हम कर सकते हैं। एक लड़के के लिए चार पिता खड़े हो जाए कि हम चुनाव लड़ते हैं, जो जीत जाए, वह तुम्हारा बाप है। फिर तुम आदर देना उसको बाप का। कैसे संभव होगा यह? कुलपति चुनाव से नहीं आया था। एक कुल था, एक घर था, सीखनेवालों का एक परिवार था। उस परिवार में सर्वाधिक वृद्ध था। सबसे ज्यादा सीखा था, सबसे ज्यादा सिखाया था, सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण था, पिता होने के योग्य था--वह पिता बन गया। यह बिलकुल सहज घटना थी। उसके प्रति आदर था, अब उस कुलपति का आदर आज का कुलपति मांगता है तो सब बेहूदगी की बातें हो जाती हैं। कोई नहीं आदर देगा। पत्थर पड़ेंगे। चुनाव करनेवाले पर पत्थर ही पड़ सकते हैं। और वह मांग करता है कि चूंकि मैं कुलपति हूं, इसलिए मुझे आदर उतना मिलना चाहिए, जितना कुलपति को, गुरु को मिलता था। यह बेहूदी बातें हैं, एब्सई हैं, अब इनकी कोई संगति नहीं है। आनेवाले भविष्य में हमें समझाना पड़ेगा कि कुलपति सिद्ध करो, गुरु सिद्ध करो। तो गुरु सिद्ध करना साधारण बात नहीं है, बहुत असाधारण घटना है।
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