ओम मात्र संकेत है - ओशो
ओम मात्र संकेत है - ओशो
विज्ञान कहता है कि ध्वनि विद्युतकणों की ही बदलाहट है, रूपांतरण है। ध्वनि स्वयं अपने में कुछ नहीं वरन विद्युत है। उपनिषद कहते हैं कि विद्युत कुछ नहीं है, बल्कि ध्वनि का रूपांतरण है। एक बात जरूर है कि किसी भी तरह ध्वनि व विद्युत परिवर्तित की जा सकती हैं एक-दूसरे में। परन्तु आधारभूत कौन है? विज्ञान का कहना है कि विद्युत आधारभूत है। उपनिषदों का कहना है कि ध्वनि आधारभूत है, और मैं सोचता हूं कि यह जो भेद है, वह केवल उनकी पहुंच के कारण से है। उपनिषद अंतिम सत्य तक ध्वनि के माध्यम से पहुंचते हैं, मंत्रों के द्वारा। वे ध्वनि का उपयोग करते हैं ध्वनिशून्य को उपलब्ध करने के लिए। धीरे-धीरे ध्वनि को छोड़ दिया जाता है और धीरे-धीरे ध्वनिशून्यता पा ली जाती है। अंत में, जब वे नीचे पेंदे में पहुंचते हैं वे उस कास्मिक साउंड-ब्रह्म की ध्वनि को सुनते हैं। वह कोई विचार नहीं है-वह कोई पैदा की गई ध्वनि नहीं है-वह तो अस्तित्व के अपने स्वभाव में अंतर्निहित है। उसी ध्वनि को उन्होंने ओम् कहा है। वे कहते हैं कि जब हम ओम को दोहराते हैं, वह मात्र समरूपता है-दूर बहुत दूर की नकल। वे कहते हैं, वह सही नहीं है। यह वह नहीं है जो कि वहां जानी जाती है, क्योंकि यह तो हमारे द्वारा उत्पन्न की गई है। यह तो मात्र किसी फोटोग्राफ की तरह है, यह सिर्फ उससे मिलती-जुलती है। मेरी फोटो मुझसे मिलती है, पर वह मैं नहीं हूं।
मैंने एक डच पेंटर वान गॉग के बाबत सुना है। एक बहुत सभ्य महिला वान गाँग को सड़क पर मिली और कहने लगी-मैंने आपकी तसवीर देखी है और वह इतनी सुंदर थी एवं इतनी प्यारी थी कि मैंने उसे चूम लिया। वान गॉग ने पूछा-क्या उस तसवीर ने कुछ जवाब दिया? महिला ने कहां-नहीं, तसवीर कैसे जवाब दे सकती है? वान गॉग ने कहा-तब वह मैं नहीं था। एक फोटो समरूप हो सकती है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। उसके साथ कुछ गलती नहीं है, बस इतना काफी है कि वह मिलती-जुलती है। परन्तु किसी कोमल समझने की भल नहीं करनी चाहिए। इसलिए ओम मात्र संकेत है उसका जिससे कि वह मिलता-जुलता है, एक फोटो की तरह।
-ओशो
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