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    मनुष्य बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है- ओशो

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    मनुष्य बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है- ओशो

    अनुशासन दो प्रकार का है। एक तो वह, जो बाहर से थोप दिया गया है, और दूसरा वह, जो स्वयं के भीतर से आया है। अब तक हमने यही किया है कि सब डिसीप्लीन, सब अनुशासन ऊपर से थोपने की कोशिश की है। ऊपर से हमने सिखाया है आदमी को किया क्या करना है और क्या नहीं करना है! उस आदमी को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि जो करना है वह करने योग्य है, जो नहीं करना है वह नहीं करने योग्य है। हमने सिर्फ ऊपर से नियम बिठा लिए हैं। उन नियमों के दोहरे दुष्परिणाम हए हैं। एक तो उन नियमों के कारण व्यक्ति का अपना विवेक विकसित नहीं हो सकता है और दूसरा, ऊपर से थोपे गए नियम मनुष्य के भीतर विद्रोह पैदा करते हैं। व्यक्ति, जितना बुद्धिमान होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो, दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है, बगावत शुरू हो गयी है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।

    स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पूर्ण निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हं, अपनी व्यवस्था चाहता है। तो अनुशासन की पुरानी सारी परंपरा एकदम आकर गड्ढे में खड़ी हो गयी है। वह टूटेगी नहीं। उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उसे चलाने की कोशिश नहीं ही करें, क्योंकि जितना हम उसे चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से मनोप्रेरणा उसे तोड़ने को आतुर हो जाएगी। और उसे तोड़ने की आतुरता बिलकुल स्वभाविक, उचित है। गलत भी नहीं है।

    - ओशो

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