हिंदी सिनेमा में एकरस फ़िल्मों का दौर जब चोर-उच्चके हीरो को भी दर्शकों ने पसंद किया
हिंदी सिनेमा में एकरस फ़िल्मों का दौर
आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में निर्देशकों ने नैतिकता और सामाजिक संस्कार का लिहाज रखा था। देश के विभिन्न कोनों से आए लेखकों-निर्देशकों ने अपने इलाके की संस्कृति से प्रेरित कहानियाँ पेश कीं। इसे ही हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। तब निर्माता-निर्देशकों का लक्ष्य पैसों से अधिक कथ्यों पर था। आठवें दशक के अंत और नौवें दशक में मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा जैसे निर्देशकों ने हिंदी फ़िल्मों के हीरो के लफंगा, उचक्का, पाकेटमार, चोर आदि बना दिया। इस दशक में अमिताभ बच्चन की अधिकांश फ़िल्मों का नायक लुम्पेन है। लगातार एक जैसी कहानियाँ और गिने-सुने चेहरों को देखते हुए दर्शक भी ऊब चुके थे। पिछली सदी के आखिरी दशक में उन्हें जब आमिर, सलमान और शाहरुख खान दिखे तो उन्होंने इन नए सितारों को अपनी पसंद बना दिया। हालात ऐसे हुए कि वन मैन इंडस्ट्री अमिताभ बच्चन भी कुछ सालों के लिए बेरोजगार हो गए।
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