हिंदी सिनेमा में वह दौर जब साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में का निर्माण किया गया
हिंदी सिनेमा में साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में का दौर और प्रभाव
कभी देश के कोने में हिंदी के विस्तार का श्रेय हिंदी फ़िल्मों को दिया जाता था लेकिन बदलते वक्त में नए अंग्रेजी पसंद करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए अब हिंदी फ़िल्मों में संवाद रोमन में लिखे जाने लगे ताकि वे आसानी से उसे पढ़ सकें। इसके अलावा क्रेडिट लाइन और प्रचार सामग्री तो रोमन में ही प्रदर्शित की जाती है।
मशहूर निर्माता निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने कहा था, हिंदी का सौभाग्य है कि वह देश के कोने कोने में बोली जाती है लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत के किसी भूभाग में वह अपनी आत्मीयता स्थापित नहीं कर पाई है। जिन प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएँ फल फूल रही है, उन क्षेत्रों में किसी को हिंदी की ओर नज़र उठाकर देखने की भी फुरसत नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे अपने बल पर खड़ा होना होगा।
त्रिलोक जैतली ने 'गोदान' के निर्माता निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किए बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। 'गोदान' के बाद ही साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी श्रृंखला में 'शतरंज के खिलाड़ी' भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी TAMAS 'मारे गए गुलफाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी कसम' हिंदी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फ़िल्मों में 'बदनाम बस्ती', 'आषाढ़ का एक दिन', 'सूरज का सातवां घोड़ा', 'एक था चंदर, एक थी सुधा', 'सत्ताइस डाउन', 'रजनीगंधा', 'सारा आकाश' और 'तमस' भी शामिल है. फिल्म समीक्षक हसनैन साजिद रिज़वी ने कहा कि फिल्म जगत में एक वर्ग का आज भी दावा है कि हिंदी फ़िल्मों ने हिंदी की जो सेवा की, उसके प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया, उसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं। देश के कोने-कोने में आज हिंदी का जो विस्तार दिखाई दे रहा है, उसके पीछे हमारी फिल्में ही हैं।
हसनैन ने कहा कि दूसरा पक्ष यह पूछ बैठता है कि हिंदी भाषा के इतने दर्शक अगर नहीं मिलते तब क्या हिंदी में इतनी फ़िल्मों का कोई खास संबंध नहीं होता है, आज भी लोग मग्न होकर सत्यजित राय और मृणाल सेन की फिल्में देखते हैं। लेकिन इन फिल्मों को देखने से कोई बंगला भाषा में प्रवीण नहीं हो जाता है।
उन्होंने कहा कि आज काफी संख्या में ऐसे अभिनेता-अभिनेत्रियों हैं जो दूसरे मुल्कों और परिवेश से आकर बॉलीवुड में काम कर रही हैं। कैट्रीना कैफ, काल्की कोचलिन, जैकलिन फनाडिस, सन्नी लियोन, लिजा रे, ज़रीन खान, जिया खान, फ्रीडा पिंटो आदि दूसरे देश से आई हैं लेकिन काफ़ी हिंदी फ़िल्मों में काम कर रही है। हिंदी फिल्मों की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
उन्होंने कहा है कि ऐसे कलाकारों के लिए हिंदी फ़िल्मों में प्रयोग में आने वाले संवाद अब रोमन में लिखे जाते हैं। क्रेडिट टाइटल और प्रचार सामग्री भी अंग्रेजी में होती है। 'देवदास', 'बंदिनी', 'सुजाता' और 'परख' जैसी फ़िल्में उस समय बॉक्स ऑफिस पर उतनी ही सफल नहीं रहने के बावजूद फिल्मों के भारतीय इतिहास के नए युग की प्रवर्तक मानी जाती है।
आज लोगों को 'धरती के लाल' और 'नीचा नगर' जैसी फ़िल्मों का इंतजार है जिसके माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिले और अपनी माटी की सोंधी, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं का आभास हो।
अपने सौंवे वर्ष में प्रवेश कर रहे भारतीय सिनेमा के इतिहास पर अगर नज़र डाली जाए तो कुछ ऐसे तथ्य हमारे सामने आते हैं जिन्हें जानना हर बॉलिवुड प्रशंसक के लिए बेहद जरूरी है। पिछले सौ वर्षों में बॉलिवुड ने विभिन्न प्रकार के उतार-चढ़ावों का सामना किया है। इसके अलावा बहुत सी ऐसी घटनाएँ भी घटीं जो सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गई।
1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद देश में तेजी से परिवर्तन हुए। अचानक सभी अमीर होने लगे। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री भी इस परिवर्तन से प्रभावित हुई। कुछ दशकों पहले तक हिंदी फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक अपनी कथा और प्रस्तुति में आम दर्शकों की रुचि का ख्याल रखते थे। इस दशक में आम दर्शक भी बदला और उसी के अनुरूप निर्देशकों की सोच और रुझान में भी बदलाव आया। सिनेमा मुख्य रूप से दर्शकों से ही संचालित होता है। लक्षित दर्शकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ध्यान में रखकर ही फिल्मों की कहानियाँ चुनी जाती हैं।
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