प्रश्न-- ओशो, वह गैप और पार्टिसिपेशन जो दोनों में है, वह डिस्टर्ब पैदा कर देता है। और वह सिर्फ प्रेम, जो कि अभिव्यक्त है, सेवा के रूप में हम कहें या और किसी सृजनात्मक रूप में कहें, पार्टीसिपेशन को वही सिद्ध करता है।
प्रश्न--वह गैप और पार्टिसिपेशन जो दोनों में है, वह डिस्टर्ब पैदा कर देता है। और वह सिर्फ प्रेम, जो कि अभिव्यक्त है, सेवा के रूप में हम कहें या और किसी सृजनात्मक रूप में कहें, पार्टीसिपेशन को वही सिद्ध करता है।
ओशो--ठीक कहते हैं, ठीक कहते हैं। इसलिए ध्यान का जो दूसरा हिस्सा है, वह प्रेम है या करुणा है। तब पूरा सत्य प्रकट होगा। प्रश्न--लिव कर सकते हैं तब? ओशो--लिव कैसे करेंगे? अ
सल में पूरे न हो पाए, तो कभी नहीं लिव कर सकते। क्योंकि आधा जो विरोध में इनकार कर दिया है, वह चारों तरफ से घेरे हैं, और कारागृह बन गया है। वह कारागृह बन गया है, अब वह मुक्ति नहीं ला रहा है। गौतम बुद्ध ने बहुत अदभुत व्यवस्था की है। या तो ध्यान के प्रयोग के पहले, या बाद, किसी भी हालत में, जिसको हमने ब्रह्म-विहार कहा है--करुणा, मैत्री उसके भाव का हममें उदय होना चाहिए। क्योंकि तब, जैसा मैंने अभी कहा कि या तो तू या मैं, यह हमारा सामान्य डिवीजन है देखने का, ध्यान का। लेकिन ऐसा भी हो सकता है, तू भी और मैं भी। या ऐसा भी हो सकता है, न तू, न मैं। यह प्रेम का अनुभव होगा। प्रेम के अनुभव हम दो ढंग से कह सकते हैं। न तू, न मैं, कोई और। उसी को परमात्मा कहेंगे। परमात्मा को अगर मैं मैं से आइइंटीफाई करता हूं, तो मैं आपका निषेध कर देता हूं और अगर तू से करता हूं तो मेरा निषेध हो जाता है। मैं परमात्मा की परिभाषा करता हूं, जो मैं भी है और हं भी है--जहां मेरा मैं और आपका तू दोनों आकर मिल गए हैं और एक हो गए हैं।
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