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    भगवान की ओर चित्त दृढ़ नहीं होता

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    भगवान की ओर चित्त दृढ़ नहीं होता 

    नव-दीक्षित शिष्य ने कहा-"गुरुदेव! उपासना में मन नहीं लगता। भगवान की ओर चित्त दृढ़ नहीं होता।"

    गरु ने गंभीर दष्टि डालकर शिष्य को देखा और जैसे कोई बात समझ में आ गई हो, बोले-"सच ही कहते हो वत्स! यहाँ ध्यान लगेगा भी नहीं। अन्यत्र चलकर साधना करेंगे, वहाँ ध्यान लगेगा। आज सायंकाल ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे।"

    'सायंकाल!' शिष्य कुछ चिंतित स्वर में प्रश्न कर बैठा, जिसका गुरु ने कोई उत्तर न दिया। सूर्यास्त के साथ ही वे दोनों एक ओर चल पड़े। गुरु के हाथ में मात्र एक कमंडल था, शिष्य के हाथ में थी एक झोली जिसे वह बहत यत्नपूर्वक सँभाले हए चल रहा था।

    मार्ग में एक कुआँ आया। शिष्य ने शौच की आशंका व्यक्त की। दोनों रुक गए। बहुत सावधानी से उसने झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया।जाते-जाते उसने कई बार झोले की ओर दृष्टि डाली।

    'गड़ाम!' एक तीव्र प्रतिध्वनि भर सुनाई दी और झोले में पड़ी कोई वस्तु कुएँ में जा समाई। शिष्य दौड़ा हुआ आया और चिंतित स्वर __ में बोला-"भगवन्! झोले में सोने की ईंट थी सो क्या हुई?"

    कुएँ में चली गई, अब कहें तो चलें, कहें तो फिर वहीं लौट चलें जहाँ से आए हैं, अब ध्यान न लगने की चिंता कहीं न रहेगी।

    एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए शिष्य ने कहा-"सच ही गुरुदेव! आसक्ति का मन से परित्याग किए बिना कोई भी ईश्वर में मन नहीं लगा सकता।"

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