मात्र अर्थ ही मतलब नहीं है, बल्कि वे इशारे हैं - ओशो
मात्र अर्थ ही मतलब नहीं है, बल्कि वे इशारे हैं - ओशो
इसलिए, ध्यान रहे कि आप मात्र शब्दों में ही न खो जाएं। शब्दों का अर्थ कुछ भिन्न बात है; और उससे भी ज्यादा अच्छा होगा यदि कहें कि उनका महत्व। उपनिषद शब्द को चिन्हों, इशारों की भांति काम में लेते हैं। वे शब्दों का उपयोग कुछ दिखाने के लिए करते हैं न कि कुछ कहने के लिए। आप अपने शब्दों से कुछ कह सकते हैं, आप अपने शब्दों से कुछ दिखला सकते हैं। जब आप कुछ दिखला रहे हैं, तो शब्द से परे जाना पड़ेगा, शब्द को भूल जाना पड़ेगा। अन्यथा शब्द हीआंखों में तैरने लगते हैं और वे सारे दर्शन को बिगाड़ देते हैं। हम शब्दों का उपयोग करते हैं, परन्तु सावधानी के साथ। सदैव स्मरण रखें कि मात्र अर्थ ही मतलब नहीं है, बल्कि वे इशारे हैं।
सांकेतिक रूप से उनका उपयोग किया गया है, जैसे कि उंगली उपयोग चांद की ओर इशारा करने के लिए। उंगली चांद नहीं है, परन्तु कोई चाहे तो उंगली से चिपक सकता है और कह सकता है कि मेरे गुरु ने इसी को चांद बतलाया है! उंगली चांद नहीं है, परन्तु उंगली का दिखलाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। शब्द कभी भी सत्य नहीं है; पर शब्दों का उपयोग किया जा सकता है दिखलाने के लिए। इसलिए सदैव याद रखें कि उंगली को भूल जाता है। यदि उंगली ज्यादा महत्व की और ज्यादा कीमती बात हो गई चांद से, तो फिर सारी बात ही विकृत हो जाएगी। इस दूसरे बिंदु को स्मरण रखें। शब्द केवल संकेत हैं किसी उसके, जो कि शब्दहीन है, जो कि मौन है, जो कि पार है, जो कि सबका अतिक्रमण है। इसकी विस्मृति कि शब्द ही वास्तविकता नहीं है, इसने बहुत गड़बड़ पैदा की है। हजारों-हजारों विवेचनाएं उपलब्ध हैं, परन्तु वे सब शब्द से संबंधित हैं न कि शब्द रहित वास्तविकता से।
वे हजारों-लाखों वर्षों तक वाद-विवाद करते रहते हैं। पंडितों ने बहुत विवाद किया है कि इस शब्द का क्या अर्थ है और उस शब्द का क्या अर्थ है! और इस तरह एक बहुत बड़ा साहित्य निर्मित कर दिया है। उसके अर्थ की इतनी खोज हुई है जो कि पूरी तरह अर्थ हीन है। वे मुख्य बात को ही चूक गए। शब्दों का अर्थ वास्तविकता कभी नहीं था-वे तो केवल संकेत थे, उसके तरफ जो कि शब्दों से बिलकुल ही भिन्न है। तीसरी बात यह है कि मैं उपनिषदों पर आलोचना करने नहीं जा रहा, क्योंकि आलोचना केवल बुद्धि से संबंधित हो सकती है। मैं तो प्रतिसंवेदन करने जा रहा हूं बजाय आलोचना करने के। प्रतिसंवेदना दूसरी ही चीज है-बिलकुल ही भिन्न बात है। आप एक घाटी में सीटी बजाते हैं अथवा एक गीत गाते हैं अथवा बांसुरी बजाते हैं और वह घाटी प्रतिध्वनि करती है-प्रतिध्वनि करती है और फिर प्रतिध्वनि करती है। घाटी आलोचना नहीं कर रही, घाटी सिर्फ प्रतिसंवेदना कर रही है। प्रतिसंवेदन एक जीवंत बात है, आलोचना मृत होने वाली है। मैं उस पर आलोचना नहीं करूंगा। मैं तो मात्र एक घाटी बन जाऊंगा और प्रतिध्वनि करूंगा।
इसे समझना कठिन होगा, क्योंकि यहां तक कि प्रतिध्वनि प्रामाणिक भी हो, तो भी आप वही ध्वनि नहीं पकड़ सकेंगे। आपको वही ध्वनि लौटकर प्राप्त नहीं होगी। आपको उसमें कुछ संगति नहीं भी मिले; क्योंकि जब कभी एक घाटी प्रतिसंवेदन करती है, जब कभी वह कुछ भी प्रतिध्वनित करती है, वह प्रतिध्वनि कोई निष्क्रिय प्रतिध्वनि नहीं होती, बल्कि वह क्रियात्मक होती है। घाटी काफी कुछ उसमें, जोड़ देती है। घाटी का अपना स्वभाव काफी कुछ जोड़ देता है। एक भिन्न घाटी भिन्न तरीके से प्रतिध्वनि करेगी। ऐसा ही होना चाहिए। इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं, उसका यह अर्थ नहीं होता कि प्रत्येक को वही कहना होगा। यह ऐसा है, जो मेरी घाटी प्रतिध्वनि करती है।
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