उपनिषद संक्षिप्त सूत्र हैं - ओशो
उपनिषद संक्षिप्त सूत्र हैं - ओशो
हम शब्द वही काम में लेते हैं। प्रत्येक वही शब्द काम में लेता है, परन्तु अलग-अलग मन के साथ शब्द के अर्थ भी अलग-अलग हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक डाक्टर एक रोगी से पूछता है-कैसे हैं आप? सड़क पर किसी के आकस्मिक मिलन पर आप पूछते हैं-कैसे हैं आप? एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से पूछता है-कैसी हैं आप? शब्द तो वही हैं, परन्तु क्या अर्थ भी वही है? क्या जब एक डाक्टर अपने रोगी से पूछता है-कैसे हैं आप? और एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से पूछता है-कैसी हैं आप? तो क्या बात एक ही है? एक बिलकुल नई बात पैदा होती है तब, एक महत्वपूर्ण बात। उपनिषदों को साधारण ढंग से नहीं समझा जा सकता। नहीं कारण है कि शास्त्री सारी बात ही चूक जाते हैं। त्री भी सब कुछ चूक जाते हैं। पंडित भी सारी बात चूक जाते हैं। वे भाषा के साथ, व्याकरण के साथ वे उस सबके साथ जो कुछ भी महत्वपूर्ण है मेहनत करते हैं, परन्तु फिर चूक जाते हैं। क्यों चूक जाते हैं वे? यह चकना इसलिए होता है, कि उनका आंतरिक समय रेखा में चलने वाला होता है। वे अपनी बुद्धि से कार्य कर रहे होते, न कि अपने स्वरूप से।
वास्तव में, वे उपनिषदों पर काम कर रहे होते हैं; वे उपनिषदों को अपने ऊपर काम नहीं करने देते। यही तात्पर्य है मेरा जब मैं मात्र उपस्थित होने के लिए कहता हूं-तब ही उपनिषद आप पर काम कर सकते हैं। और वह एक रूपांतरण हो सकता है। वह आपके अस्तित्व के दूसरे तलों में ले जा सकता है। इसलिए पहली बात जो याद रखने योग्य है वह है कैसे सुनना-मात्र आपकी उपस्थिति से-अपनी पूरी श्रद्धा से उनमें डूब जाना। तर्क से न लड़े। भावना को महसूस न करें-बस, अपने स्वरूप के साथ एक हो जाए। यही कुंजी है-यही सबसे पहली बात है। दूसरी बात जो है वह है कि उपनिषद भी शब्दों का उपयोग करते हैं। उन्हें उपयोग करना पड़ता है, परन्तु वे स्वयं मौन के लिए हैं। वे बात करते हैं और वे लगातार बात करते हैं, परन्तु वे मौन के लिए बात करते हैं। ऐसा प्रयत्न बेकार है-विरोधी है, विपरीत है, असंगत है-परन्तु फिर भी केवल इसी तरह से एकमात्र संभावना है।
यही एकमात्र रास्ता है। यहां तक कि मुझे भी यदि आपको मौन के लिए उत्प्रेरित करना हो, तो मुझे भी शब्द ही काम में लेने पड़ते हैं। उपनिषद शब्द काम में लेते हैं, परन्तु वे शब्दों के पूरे खिलाफ हैं; वे उनके लिए हैं ही नहीं यह बात लगातार याद रखना है अन्यथा बहुत संभव है कि हम शब्दों में खो जाए। शब्दों का अपना जादू है; उनका अपना चुंबकीय पन है। और प्रत्येक शब्द अपनी श्रृंखला निर्मित करता है। उपन्यासकार जानते हैं; कवि जानते हैं। वे कहते हैं कि कई बार ऐसा होता है कि वे केवल अपने उपन्यास को प्रारंभ करते हैं। जब वह समाप्त होता है, वे नहीं कह सकते कि उन्होंने उसे समाप्त किया है। सचमुच, शब्दों की अपनी एक श्रृंखला है। वे अपनी तरह से जीने लगते हैं और आगे चलने लगते हैं, परन्तु मैं कभी समाप्त नहीं करता। और कई बार मेरे चरित्र ऐसी बातें कहते हैं, जो मैंने कभी नहीं चाहा कि वे कहें! वे अपना एक अलग जीवन लेना प्रारंभ करते हैं और वे अपने रास्ते चले जाते हैं। वे स्वतंत्रता हो जाते हैं लेखक से, कवि से। वे ऐसे स्वतंत्र हो जाते हैं जैसे कि बच्चे अपने माता-पिता से हो जाते हैं। उनकी अपनी एक जिंदगी होती है। इसलिए शब्दों का अपना तर्क होता है। एक शब्द का उपयोग करें और आप एक रास्ते पर होंगे; और शब्द बहुत सी बातें पैदा करेगा। शब्द स्वयं बहुत सी बातें उत्पन्न करेगा और कोई भी उनमें खो सकता है। परन्तु उपनिषद शब्दों के लिए नहीं हैं। इसलिए वे जितने कम हो सके उतने कम शब्द काम में लेते हैं। उनका संदेह इतना टेलीग्राफिक है कि एक भी शब्द बेकार काम में नहीं लिया गया है। उपनिषद अधिक से अधिक संक्षिप्त सूत्र हैं। एक शब्द भी निरर्थक नहीं है। और शब्द भी सम्मोहन की धारा पैदा कर सकते हैं। परन्तु शब्दों को तो काम में लेना ही पड़ेगा।
- ओशो
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