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    हिंदी सिनेमा का वो दौर जब टिकट मिलती थी दो आने की


    हिंदी सिनेमा का वो दौर जब टिकट मिलती थी दो आने की 

    आज भारत विश्व में सर्वाधिक फ़िल्में निर्मित करनेवाला देश है लेकिन देश में सिनेमा की शुरुआत आसान नहीं रही। आज हमारा सिनेमा जिस मुकाम पर है, उसे वहाँ तक पहुँचने के लिए जाने कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है और कितना प्रयास करना पड़ा है। भारत में फ़िल्मों के जन्म से लेकर उसके निरंतर क्रमिक विकास की कहानी जानने के लिए बहुत पीछे जाना होगा। फिल्मों के आविष्कार का श्रेय थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है और यह 1883 में मिनेटिस्कोप की खोज के साथ जुड़ा हुआ है। 1894 में फ्रांस में पहली फ़िल्म बनी 'द अराइवल ऑफ़ ट्रेन । फ़िल्मों की तकनीक में तेजी से विकास हुआ और जल्दी ही यूरोप और अमेरिका में कई अच्छी फ़िल्में बनने लगीं।

    भारत में फ़िल्मों का जन्म 7 जुलाई 1896 भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अमर दिन था। ल्युमीयर ब्रदर्स नामक दो फ्रांसीसी अपनी फ़िल्में लेकर भारत आये। इन्होंने 6 लघु चलचित्रों का प्रदर्शन किया। उस रोज़ मुंबई (पूर्व नाम बंबई) के वाटकिंस थिएटर में उनका प्रीमियर हुआ। प्रीमियर करीब 200 लोगों ने देखा। उस समय टिकट दर थी दो रुपये प्रति व्यक्ति। यह उन दिनों एक बड़ी रकम थी। इन छोटी-छोटी फ़िल्मों ने ध्वनि रहित होने के बावजूद दर्शकों का ___मनोरंजन किया था। एक सप्ताह बाद इनकी ये फ़िल्में बाकायदा नावेल्टी थिएटर में प्रदर्शित की गई। मुंबई का यह थिएटर बाद में एक्सेल्सियर सिनेमा के नाम से

    मशहूर हुआ। रोज़ इन फ़िल्मों के दो से तीन शो किए जाते थे, टिकट दर थी दो आना से लेकर दो रुपये तक। इनमें 12 लघु फ़िल्में दिखाई जाती थीं। इनमें 'अराइवल ऑफ ए ट्रेन', 'द सी बाथ' तथा 'लेडीज एंड सोल्जर्स आन ह्वील' प्रमुख थीं। ल्युमीयर बंधुओं ने जब भारतीयों को पहली बार सिनेमा से परिचित कराया तो लोग बेजान तस्वीरों को चलता-फिरता देख दंग रह गये। हालांकि उन दिनों इन फिल्मों के लिए जो टिकट दर रखी गई थी, वह काफी थी लेकिन फिर भी लोगों ने इस अजूबे को अपार संख्या में देखा। पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस नई चीज़ की तारीफों के पुल बांध दिए। एक बार इन फिल्मों को लोकप्रियता मिली, तो भारत में बाहर से फ़िल्में अपने और प्रदर्शित होने लगीं। 47 लघु चलचित्रों से प्रभावित होकर महाराष्ट्र के श्री एच.एस. भटवेडकर और श्री हीरालाल सेन नाम व्यक्तियों ने ल्युमीयर ब्रदर्स की तरह क्रमशः मुंबई और कोलकाता (पूर्व नाम कलकत्ता) में लघु चलचित्रों का निर्माण प्रारंभ कर दिया।

    सन् 1899 में श्री भटवेडकर ने भारत के प्रथम लघु चलचित्र बनाने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने पुंडलीक और कृष्ण नाहवी के बीच कुश्ती फ़िल्मायी थी। यह कुश्ती इस उद्देश्य से विशेष रूप से मुंबई के हैंगिंग गार्डन में आयोजित की गई थी। शूटिंग के बाद फ़िल्म को प्रोसेसिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहाँ से जब वह फ़िल्म प्रोसेस होकर आई तो जेवसाब दादा अपने काम का नतीजा देखकर बहुत खुश हुए। पहली बार यह फ़िल्म रात के वक्त मुंबई के खुले मैदान में दिखाई गई। उसके बाद उन्होंने अपनी यह फ़िल्म पेरी थिएटर में प्रदर्शित की। टिकट की दर थी आठ आना से तीन रुपये तक। अकसर हर शो में उनको 300 रूपये तक मिल जाते थे। उन्होंने भगवान कृष्ण के जीवन पर भी एक फ़िल्म बनाने का निश्चय किया था लेकिन भाई की मौत ने उन्हें तोड़ दिया। उन्होंने अपना कैमरा बेच दिया और फिल्म निर्माण बंद कर दिया।

    1904 में मणि सेठना ने भारत का पहला सिनेमाघर बनाया, जो विशेष रूप से फिल्मों के प्रदर्शन के लिए ही बनाया था। इसमें नियमित फ़िल्मों का प्रदर्शन होने लगा उसमें सबसे पहले विदेश से आई दो भागों में बनी फ़िल्म 'द लाइफ क्राइस्ट' प्रदर्शित की गई। यही वह फ़िल्म थी जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके को भारत में सिनेमा की नींव रखने को प्रेरित किया। हालांकि स्वर्गीय दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने और पूरी लंबाई के कथाचित्र बनाने का गौरव हासिल है। भारत में पहली मूक फ़िल्म बनाने का श्रेय दादा साहब फालके का ही है। यह फ़िल्म थी 1913 में बनी-'राजा हरिश्चंद्र'। इसके बाद के दो दशकों में कई और मूक फ़िल्में बनीं। इनके कथानक धर्म, इतिहास और लोक गाथाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे।

    दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक फ़िल्म देखी। वह फ़िल्म ल्युमीयर ब्रदर्स की फ़िल्मों की तरह लघु फ़िल्म न होकर लंबी फ़िल्मफालके में पौराणिक कथाओं पर आधारित फ़िल्मों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फ़िल्म थी और सन् 1913 में प्रदर्शित हुई। उस चलचित्र ने (ध्वनिरहित होने के बावजूद भी) लोगों का भरपर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब तारीफ की। थी। उस फ़िल्म को देखकर दादा साहेब 

    फिर तो फ़िल्म निर्माण ने भारत के एक उद्योग का रूप धारण कर लिया और तीव्रतापूर्वक उसका विकास होने लगा। उन दिनों हिमांशु राय जर्मनी के यू.एफ.ए. स्टूडियो में निर्माता के रूप में कार्यरत थे। वे अपनी पत्नी देविका रानी के साथ स्वदेश वापस आ गये और अपने देश में फ़िल्मों का निर्माण करने लगे। उनकी पत्नी देविका रानी स्वयं उनकी फ़िल्मों में नायिका (हीरोइन) का कार्य करती थी। पति-पत्नी दोनों को खूब सफलता मिली और दोनों ने मिलकर बांबे टॉकीज स्टूडियो की स्थापना की।

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