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    उपनिषद का मेरे लिए अर्थ - ओशो

    उपनिषद का मेरे लिए अर्थ - ओशो

     उपनिषद का मेरे लिए अर्थ - ओशो 

           मुझे स्टीवेन की पंक्तियां याद आती हैं, जो कि एक झेन कविता की तरह हैं। बीस आदमी एक पुल को पार कर रहे हैं एक गांव के भीतर अथवा बीस आदमी बीस पुलों को पार कर रहे हैं बीस गांवों में! जब मैं कुछ पढ़ता हूं और मेरी घाटी किसी विशेष ढंग से प्रतिध्वनि करती है, तो वह निष्क्रिय नहीं होती। उस प्रतिध्वनि में मैं भी उपस्थित होता हूं। जब आपकी घाटी फिर से प्रतिध्वनि करेगी, तो वह दूसरी ही बात हो जाएगी। जब मैं एक जीवंत प्रतिसंवेदन कहता हूं, तो मेरा मतलब इससे ही है। कभी-कभी यह बिलकुल ही असंगत लगे; क्योंकि घाटी उसे एक रूप प्रदान कर देती है, एक अपना ही रंग दे देती है। यह स्वाभाविक है। इसलिए मैं कहता हूं कि आलोचनाएं बड़ी अपराधपूर्ण हैं। केवल प्रतिसंवेदन होने चाहिए, कोई आलोचना नहीं; क्योंकि आलोचक यह महसूस करने लगता है कि जो कुछ वह कह रहाहै, वह पूर्णतः सत्य है। 

            एक आलोचक महसूस करने लगता है कि दूसरी आलोचनाएं गलत हैं, और दूसरों की आलोचनाओं को काटना उसका स्व-आरोपित कर्तव्य है, क्योंकि वह सोचता है कि उसकी आलोचना तभी सही हो सकती है, जबकि दूसरों की आलोचना गलत हो। लेकिन प्रतिसंवेदन के साथ ऐसा नहीं होता; हजारों प्रतिसंवेदन संभव हो सकते हैं। और प्रत्येक प्रतिसंवेदन सही है यदि वह प्रामाणिक है। यदि वह आपकी गहनता से आती है, तो वह सही है। क्या सही है और क्या गलत है, इसका कोई कुलों निर्णायक नहीं है। यदि कुछ आपके भीतर से आपकी गहनता से आता है, यदि आप उसके साथ एक हो जाते हैं, यदि वह आपके पूर्ण स्वरूप में से झंकृत हो रहा है, तो वह सही है। अन्यथा कितना ही होशियार, व कितना ही तर्कयुक्त क्यों न हो, वह गलत होता है। यह एक प्रतिसंवेदन होने वाला है। और जब मैं इसे प्रतिसंवेदन कहता हूं, तो यह एक कविता की तरह अधिक और एक फिलॉसाफी की तरह कम होगा। यह कोई पद्धति नहीं होगी। आप पद्धतियां निर्मित नहीं कर सकते प्रतिसंवेदनों से; प्रतिसंवेदन आणविक होते हैं, खंड-खंड। उनमें आंतरिक एकता होती है, परन्तु उस आंतरिक एकता को खोजना इतना आसान नहीं। वह एकता एक टापू, और एक अंतर्देश की तरह होती है। एक टापू, और एक अंतर्देश में एकता होती है और बहुत गहरे, बहुत गहरे समुद्र की गहराई में जमीन एक होती है। यदि यह बात समझ में आ जाए तो कोई आदमी एक टापू नहीं होता। गहरे में, चीजें एक हैं; जितने गहरे आप जाते हैं, उतने ही अधिक आप ऐक्यता को पाते हैं। 

            इसलिए यदि एक प्रतिसंवेदन प्रामाणिक है, तो फिर कोई भी प्रतिसंवेदन जो कि चाहे बिलकुल विरोधी दिखता हो, भिन्न नहीं हो सकता-नाचे गहराई में एकता होगी। परन्तु नीचे गहरे उतरना पड़े। और आलोचनाए बहुत ऊपरी चीजें होती हैं। इसलिए मैं आपको कोई आलोचना नहीं दे रहा। मैं तो कहूंगा कि इस उपनिषद का क्या अर्थ है। मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि इस उपनिषद का मेरे लिए, मुझमें क्या अर्थ है। मैं कोई दावा नहीं कर सकता; और जो लोग भी दावा करते हैं, वे अनैतिक लोग हैं। कोई भी नहीं कह सकता कि इस उपनिषद का क्या अर्थ होता है। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि इस उपनिषद का मेरे भीतर क्या अर्थ होता है यह मेरे भीतर कैसे गूंजता है। ऐसा प्रतिसंवेदन आपके भीतर भी प्रतिसंवेदना उत्पन्न कर सकता है, यदि आप केवल यहां उपस्थित हों। तब जो भी मैं कहूंगा, वह आपके भीतर भी प्रतिध्वनित होगा। और यदि वह प्रतिध्वनित हो, तभी केवल आप उसे समझ करें। इसलिए मात्र एक घाटी की तरह हो जाएं, अपने को छोड़ दें, ताकि आप स्वतंत्रता से प्रतिध्वनि कर सकें। अपने से एक घाटी की भांति ही संबंधित हों बजाय उपनिषद की भाषा के अथवा उसके जो मैं कह रहा हूं। बस, अपने से एक घाटी की तरह संबंधित हों और बाकी सब अपने आप आएगा। किसी तनाव की आवश्यकता नहीं, कोई खिंचे हुए प्रयत्न की जरूरत नहीं मुझे समझने के लिए। वह रुकावट बाधा बन जाएगी। मात्र आराम में हो जाएं। मात्र मौन व अक्रिया में हो और जो भी होता हो उसे अपने में गूंजने दें। वे सारी गुंजारें, झंकारें आपको एक दूसरे ही आयाम में ले जाएगी, एक दूसरे ही दर्शन को ले जाएंगी। 

    -ओशो 

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