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    अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश है- ओशो

    अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश है- ओशो

    अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश है- ओशो 

        अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश। जो मूल है, जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह सदैव ही अज्ञात है। जिसको हम जानते हैं, वह बहुत ही ऊपरी है। इसलिए हमें थोड़ी सी बातें ठीक से समझ लेना चाहिए, इसके पहले कि हम अज्ञात में उतरें। ये तीन शब्द-ज्ञात, अज्ञात, अज्ञेय समझ लेने जरूरी है सर्वप्रथम, क्योंकि उपनिषद अज्ञात से संबंधित हैं केवल प्रारंभ की भांति। वे समाप्त होते हैं अज्ञेय में। ज्ञात की भूमि विज्ञान बन जाती है; अज्ञात-दर्शनशास्त्र या तत्वमीमांसा; और अज्ञेय है धर्म से संबंधित। दर्शनशास्त्र ज्ञात व अज्ञात में, विज्ञान व धर्म के बीच एक कड़ी है। दर्शनशास्त्र पूर्णतः अज्ञात से संबंधित है। जैसे ही कुछ भी जान लिया जाता है वह विज्ञान का हिस्सा हो जाता है और वह फिर फिलॉसाफी का हिस्सा नहीं रहता। 

        इसलिए विज्ञान जितना बढ़ता जाता है, उतना ही दर्शनशास्त्र आगे बढ़ा दिया जाता है। जो भी जान लिया जाता है विज्ञान का हो जाता है; और दर्शनशास्त्र विज्ञान व धर्म के मध्य बीच की कड़ी है। इसलिए विज्ञान जितनी तरक्की करता है, दर्शनशास्त्र को उतना ही आगे बढ़ना पड़ता है; क्योंकि उसका संबंध केवल अज्ञात से ही है। परन्तु जितना दर्शनशास्त्र आगे बढ़ाया जाता है, उतना ही धर्म को भी आगे बढ़ना पड़ता है; क्योंकि मूलतः धर्म अज्ञेय से संबंधित है। उपनिषद अज्ञात से प्रारंभ होते हैं, और वे अज्ञेय पर समाप्त होते हैं। और इस तरह सारी गलतफहमी खड़ी होती है। प्रोफेसर रानाडे ने उपनिषदों के दर्शन पर एक बहुत गहन पुस्तक लिखी है, परन्तु वह प्रारंभ ही बनी रहती है। वह उपनिषदों की गहरी घाटी में प्रवेश नहीं कर सकती; क्योंकि वह दार्शनिक ही रहती है। 

        उपनिषदों की शुरुआत दर्शनशास्त्र से होती है, परन्तु वह मात्र एक शुरुआत ही है। वे धर्म में समाप्त होते हैं, अज्ञेय में समाप्त होते हैं। और जब मैं कहता हूं अज्ञेय, तो मेरा तात्पर्य है वह जो कि कभी जाना नहीं जा सकता। कुछ भी प्रयत्न हो, कितना भी हम प्रयास करें, जैसे ही हम कुछ जानते हैं, वह विज्ञान का हिस्सा हो जाता है। जिस क्षण भी हम कुछ अज्ञात महसूस करते हैं, वह दर्शनशास्त्र का हिस्सा हो जाता है। जिस क्षण हम अज्ञेय का सामना करते हैं, केवल तभी वह धर्म होता है। जब मैं कहता हूं अज्ञेय, तो मेरा आशय है उससे जिसे कभी जाना नहीं जा सकता; परन्तु उसका सामना हो सकता है, उसे अनुभव किया जा सकता है। उसे जीया भी जा सकता है। हम उसके आमने-सामने हो सकते हैं। उसका साक्षात्कार हो सकता है, परन्तु फिर भी वह अज्ञेय ही रहता है। केवल इतना ही अनुभव होता है कि अब हम एक गंभीर रहस्य में हैं, जिसे समझा नहीं जा सकता। इसलिए इसके पूर्व कि हम इस रहस्य में उतरें, कुछ सूत्र समझ लेने चाहिए अन्यथा कोई प्रवेश संभव नहीं होगा। 

        पहली बात तो यह है हम कैसे सुनते हैं; क्योंकि सुनने के भी कई आयाम होते हैं। आप अपने बुद्धि से अपने तर्क से सुन सकते हैं। यह एक तरीका है सुनने का, जो कि बहुत सामान्य है, बहुत सरल है और बहुत उथला, क्योंकि तर्क के साथ आप सदैव या तो बचाव करने में लगे होते हैं या हमला करने में। तर्क के साथ आप सदैव लड़ते हुए होते हैं। इसलिए जब कभी कोई कुछ भी तर्क से समझने की कोशिश करता है, वह उससे लड़ता है; केवल एक परिचय हो सकता है। गहन अर्थ तो खा जाने वाला है, क्योंकि गहन अर्थ के लिए बहुत सहानुभूति के साथ सुनना अनिवार्य है।

    - ओशो

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