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    तर्क कभी भी सहानुभूति के साथ नहीं सुन सकता -ओशो


    तर्क कभी भी सहानुभूति के साथ नहीं सुन सकता -ओशो 

            तर्क कभी भी सहानुभूति के साथ नहीं सुन सकता। वह तो बहुत तार्किक पृष्ठभूमि से सुनता है। वह कभी प्रेम से तो सुन ही नहीं सकता; वह तो असंभव है। इसलिए तर्क से सुनना ठीक है यदि तुम गणित समझने की कोशिश में हो, यदि तुम तर्कशास्त्र सीख रहे हो, और यदि तुम कोई ऐसी बात या विधि सीख रहे हो, जो पूरी तरह बुद्धिगत हो। अगर तुमने कविता को भी तर्क से सुनो, तो तुम फिर अंधे हो जाओगे। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई अपने कान से देखने का प्रयत्न करे अथवा अपनी आंखों से सुनने का प्रयत्न करे! तुम तर्क से कविता को नहीं समझ सकते। इसलिए एक गहन समझ भी होती है या दूसरी तरह की समझ भी होती है, जो कि तर्क से नहीं होती बल्कि होती है प्रेम से, अनुभूति से, भावना से, हृदय से। तर्क सदैव ही द्वंद्व में होता है। 

            तर्क कभी अपने में किसी भी चीज को आसानी से नहीं गुजरने देता। तर्क को हराया जाना चाहिए, केवल तभी कुछ भीतर प्रवेश कर सकता है। यह बुद्धि का एक सुरक्षा का इंतजाम है, यह अपने को बचाने की एक विधि है, एक सुरक्षा का साधन। यह हर क्षण सावधान रहता है, बिना उस के जाने कुछ भी गुजर नहीं सकता; और कुछ भी भीतर नहीं जा सकता बिना तर्क को पछाड़े। और अगर तर्क हार भी जाए, तो भी वह चीज आपके हृदय तक नहीं जा सकती, क्योंकि हार में आप सहानुभूतिपूर्ण नहीं हो सकते। श्रवण का दूसरा आयाम है हृदय के द्वारा, भावना के द्वारा। कोई संगीत सुन रहा है, तब किसी विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है। सच ही, यदि आप एक आलोचक हैं तो आप कभी संगीत नहीं समझ पाएंगे। हां, हो सकता है कि आप उसका गणित, उसकी छंद रचना, भाषा आदि सब कुछ संगीत के बारे में समझ जाए, परन्तु संगीत को नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि संगीत की विवेचना नहीं की जा सकती। वह तो समग्र है। वह एक समग्रता है।

            यदि तुम विवेचना करने को एक क्षण भी ठहरे तो तुमने बहुत कुछ खो दिया। वह एक बहती हुई समग्रता है। हां, कागजी संगीत की विवेचना हो सकती है, परन्तु सच्चे संगीत की विवेचना कभी भी नहीं हो सकती, जब कि वह चल रहा हो। इसलिए आप अलग खड़े हो सकते, तुम दर्शक नहीं हो सकते; तुम्हें तो उसमें भागीदार होना पड़ता है। यदि तुम उसमें भाग लेते हो, तभी तुम उसे समझ पाते हो। अतएव भावना में समझने का मार्ग हमारे स्वयं के भाग लेने से होकर आता है। आप दर्शन नहीं हो सकते। आप बाहर खड़े नहीं रह सकते। आप संगीत को एक वस्तु नहीं बना सकते। तुम्हें तो उसके हाथ बहना होता है; तुम्हें तो उसकी गहनता में पूर्णतः डूब जाना होता है। ऐसे क्षण आएंगे जब कि तुम नहीं होओगे और वहां केवल संगीत ही होगा। वे क्षण शिखर के क्षण होंगे; वे क्षण ही संगती के क्षण होंगे। तब तुम्हारे भीतर गहरे में कुछ प्रवेश कर जाता है। यह श्रवण का गहन तरीका है, पर फिर भी सर्वाधिक गहन नहीं। पहला ढंग है तर्क के द्वारा-बुद्धिगत; दूसरा है अनुभूति के द्वारा-भावात्मक; तीसरा है स्वरूप के द्वारा-अस्तित्वगत। जब आप अपनी बुद्धि से सुन रहे हैं, आप अपने स्वरूप के एक हिस्से से सुन रहे हैं। फिर जब आप अपनी भावना के द्वारा सुन रहे हैं, तब फिर आप अपने स्वरूप के एक हिस्से से ही सुन रहे हैं। 

            तृतीय, सर्वाधिक गहन, श्रवण का सबसे अधिक प्रामाणिक ढंग है आपकी समग्रता-शरीर, मन, आत्मा सब मिलकर-एक एकत्व। यदि आप श्रवण से इस तृतीय ढंग को समझ लें, तभी आप उपनिषदों के रहस्य में प्रवेश कर पाएंगे। इस तृतीय श्रवण के लिए जो परंपरागत विधि है, वह है-श्रद्धा। अतएव आप विभाजन कर सकते हैं: बुद्धि के द्वारा समझने के लिए विधि है संशय की, शंका की; भावना के द्वारा विधि है प्रेम, सहानुभूति; परन्तु स्वरूप के द्वारा विधि है श्रद्धा; क्योंकि यदि आप अज्ञात में प्रवेश कर रहे हैं। तो आप शंका कैसे कर सकते हैं? आप ज्ञात के प्रति संदेह कर सकते हैं। जिसे आप बिलकुल नहीं जानते, उसके प्रति संदेह भी कैसे किया जा सकता है? 

    -ओशो 

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