निश्छल और निष्काम प्रेम जहाँ होता है, वहाँ ईश्वरीय का वास होता है
निश्छल और निष्काम प्रेम जहाँ होता है, वहाँ ईश्वरीय का वास होता है
'मेरी' का पति बहुत निर्धन था पर पति-पत्नी में अगाध प्रेम, अविचल निष्ठा, असीम पवित्रता थी।
वह प्रति वर्ष अपने विवाह की जयंती मनाया करते थे। उस दिन अपने विगत जीवन के कर्त्तव्य-पालन पर संतोष, प्रसन्नता और परस्पर कृतज्ञता व्यक्त करते थे। भूलों की क्षमा माँगते थे और आगे के लिए और भी सचेष्ट कर्तव्य पालन की प्रतिज्ञा लेते थे।
यह पहला ही विवाह दिवसोत्सव था, जब उनके पास एकदूसरे को देने के लिए कुछ नहीं था। मेरी के बाल बड़े सुंदर थे पर उन्हें सँवारने के लिए कंघा न था। पति के पास घड़ी थी पर उसकी चेन न थी। दोनों एकदूसरे को उपहार देना चाहते थे, पर क्या दें, यह दोनों की हैरानी थी।
दोनों बाजार गए। चुपचाप, अलग-अलग। मेरी ने अपने सुंदर बाल कटवाकर बेच दिए, उनसे जो पैसा मिला पति के लिए घड़ी की चेन खरीद ली। पति ने अपनी घड़ी बेच दी और उससे मेरी के लिए कंघी खरीदी। दोनों नियत समय पर अपने-अपने उपहार लिए घर पहुंचे।
पर यह देखकर दोनों थोड़ी देर के लिए दुःखित हो गए कि जिस घड़ी के लिए चेन आई वह भी बिक गई, जिन बालों के लिए कंघी आई वह भी कट गए। थोड़ी देर तक दोनों दुखी रहे पर दोनों ने एक दूसरे के प्रति अपनी प्रेम-भावना को याद किया तो उनका हृदय गद्गद हो उठा।
इस तरह का निश्छल और निष्काम प्रेम जहाँ भी होता है, वहीं ईश्वरीय सत्ता का वास्तविक संपर्क दिखाई देता है। प्रेम की सार्थकता निष्काम भावना में ही है।।
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