• Latest Posts

    सच्चा सपूत

    True son


    सच्चा सपूत

    पूर्वकाल मे वसिट्ठक नाम का एक पितृभक्त युवक था। उसकी मा मर चुकी थी और वाप बहुत वृद्ध हो चुका था। घर मे उसकी सेवा करने वाला कोई दूसरा नही था। इसलिए वसिट्ठक ही दिन-रात तन-मन से पिता की सेवा में लगा रहता था । घर के काम से छुट्टी पाने पर वह रोज़ वाहर जाकर कमा भी लाता था।

    एक दिन बूढे बाप ने उससे कहा, "बेटा, इस तरह कब तक चलेगा? कमाना और घर को सभालना साथसाथ नहीं चल सकता । मैं तुम्हारे लिए अब एक बहू लाना चाहता हू, तब घर के काम-काज से तुम्हे फुर्सत मिल जाएगी और तुम पाराम पायोगे ।"
    बसिडक बोला, "पिताजी, मैं अकेले पापको सभाल लूगा, किसी और की आवश्यकता नहीं है।"

    पुत्र के बहुत रोकने पर भी वृद्ध पिता ने उसके लिए एक लटकी योजकर दोनो का विवाह कर दिया। बहु के आने पर बसिटक ने उसे सब वाते समझाकर पिता की सेवा में लगा दिया ।

    यह देखने-सुनने में तो भली, लेकिन स्वभाव की कुटिल थी। कुछ दिनों तक वह वृद्ध समुर की सेवा करती रही । बाद मे उसे यह बात खलने लगी कि उसका पति जो कुछ भी वाहर से कमाकर लाता है, उसे वह बूढे बाप को सौप देता है। उसने सोचा कि वाप-बेटे में किसी तरह मन-मुटीवल करवा दूं तो वह अपनी कमाई उसे न देकर मुझे देने लगेगा। अब वह जान-बझकर बुढे ससुर को चिढाने की कोशिश करने लगी। उसके लिए कभी तो वह बहुत ठण्डा पानी ला देती और कभी बहुत गर्म ; खाने में कभी नमक तेज कर देती और कभी कम; रोटी को कभी जला डालती पौर कभी अधपकी ही ससुर के आगे रख देती । बुड्डा सगर कुछ वोलता तो वह लटने-उगड़ने पर उतारू हो जाती और पति से गिकायत करती कि वे उसे दासी की तरह दुतकारते रहते है। कभी-कभी वह घर में नारो और स्वय पूमकर पति को दिखाती और कहती, "इन यूटे राम का हाल देखो ! जहा चाहते है थूक देते हैं। मैं मना करती हैं तो नो नार बाते मनाते है पीर मारने को दौड़ते है। मैं यहाँ नहीं रहगी। इस बुड्ढे ने मेरा जीवन नरक बना दिया।"

    इस तरह वह रोज़ ज़हर उगलने लगी । वसिट्ठक इन बातो से ऊबकर एक दिन उससे बोला, "तुम्ही बताओ मैं क्या करू, जैसा कहो वैसा कर दू ।"

    स्त्री ने ऐठकर कहा, "अब यह आदमी बहुत बूढा और रोगी होकर जीते-जी नरक भोग रहा है। तुम इसे ले जाकर श्मशान मे गाड आओ तो इसका और इस घर का भी उद्धार हो जाएगा। यदि तुम ऐसा न करोगे तो मैं कल ही घर से निकल जाऊगी । इस पाप को हटायो तभी घर चलेगा।"

    वसिट्ठक पर उसका जादू चल गया, उसने कहा, "ऐसा ही सही । लेकिन इसे अपने साथ ले कैसे जाऊ! यह आसानी से घर को छोडकर कही नहीं जाएगा।"

    स्त्री बोली, "मैं बताती है । ऐमा करो, आज रात मे इससे किसी दूर के ऋणी का नाम लेकर कहो कि वह मुझे आपके दिए हुए रुपये नही देता, इसलिए कल आप स्वय मेरे साथ गाडी मे चले चले तो शायद कर्जा बमूल हो जाएगा । बुड्ढा इस बात पर ज़रूर राजी हो जाएगा । बस, उसे कल बडे सवेरे ही बैलगाटी मे बिठाकर शमशान-भूमि मे ले जाना और वही एक गढा खोदकर उसीमे गाड देना । उसके बाद हल्ला मचा देना कि डाकू लोग सब कुछ लूटकर दादा को जाने कहां पकड़ ले गए।"

    वसिट्ठक इसके लिए तैयार हो गया। उसका एक सात वर्प का बालक यह सब सुन रहा था। जब वनिक अपने बाप से दूसरे दिन चलने की बात तय करके लौटा तो वह बालक चुपचाप जाकर बाबा की खाट पर लेट गया। बड़े तडके वसिट्रक ने गाडी जोती, उसमें कुदाल टोकरी रखी और फिर बाप को ले जाकर बैठाया। गाडी चलने लगी तो वह बालक भी हठ करके उसमे बैठ गया । वमिद्रक ने उसकी विशेष चिन्ता नहीं की क्योकि वह निरा बालक था।

    गाडी जब शमशान मे पहंच गई तो वमिट्टक उन दोनो को उसीमें छोड़कर स्वयं कुदाल-टोकरी लेकर उतर पड़ा और वहा से कुछ दूर हटकर एकान्त में एक बड़ा गड्ढा खोदने लगा। बालक थोटी देर बाद घूमता-घामता उसी ओर जा निकला। बाप को गढा खोदते  देखकर वह बोला, "बाबूजी, यहा घालू या शकरकन्द तो है नहीं, फिर आप क्यूँ इस तरह जमीन को खोद रहे है ?"
    पाप सिर पर चढकर बोलता है । वनिक ने भी उसे बालक को समझाकर लापरवाही से कहा, "बेटा, तुम्हारे बाबाजी को बुढापे और बीमारी से बहुत कष्ट भोगना पड़ रहा है । अव उनके लिए मरना ही सुखदायक होगा, इसलिए मैं उन्हे जमीन मे गाडने के लिए बढिया गड्ढा खोद रहा हू।"
    बालक वोला, “बाबूजी, यह तो बहुत बुरा काम है। वाप को जीते-जी गाड देना बडा पाप है।" ।
    वसिट्ठक की मति भ्रष्ट हो गई थी। उसने बालक की बातो पर ध्यान नहीं दिया। थोडी देर बाद वह थककर सुस्ताने के लिए बैठ गया । तव बालक उसकी कुदाल लेकर वही एक दूसरा गड्ढा खोदने लगा।
    वसिट्ठक ने बैठे-बैठे पूछा, "वेटा, तुम क्यो व्यर्थ का काम कर रहे हो?" ।
    बालक ने उत्तर दिया, "बाबूजी | आप जब इसी तरह बृढे होगे तो मैं भी आपको जमीन मे गाड दूगा। यह गड्ढा मैं आपके लिए अभी से खोद देता है । पिता का अनुकरण करना पुत्र का धर्म है । मैं आपकी चलाई प्रथा को टूटने नही दूगा।"

    वसिट्टक विगडकर बोला, "चुप नालायक लडके । तू मेरा पुत्र होकर भी मेरा अहित चाहता है ।"
    बालक ने कहा, “वाबूजी! मैं तो आपको नरक मे गिरने से बचाना चाहता है। आप घोर पाप करने जा रहे है, पापको इसका बहुत बुरा परिणाम भोगना पडेगा । सोचिये तो सही, यह कैसा राक्षसी कर्म है !"
    बसिढ़क इस चेतावनी से सावधान हो गया । पुत्र को गले लगाकर वह बोला, "वेटा, सत्य कहते हो ! मैं अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि तुम्हारी मां के कहने मे ऐसा काम करने आया था।"
    बालक ने फिर कहा, “वावजी। ऐसी पापिनी को तो घर से बाहर निकाल देना चाहिए। वह अपको और इस कुल को भी पाप के भयंकर गड्ढे में गिराने जा रही थी। यह साधारण अपराध नहीं है, घोर नीचता है।"

    बालक के मुख से मानो भगवान ही बोल रहे थे। सिद्धक गिरते-गिरते सभल गया। बाप और बेटे को गाडी में बैठाकर वह तुरन्त घर की ओर लौट पड़ा। उसकी स्ली उस दिन बहुत प्रसन्न थी, क्योंकि उसके घर का पाप टल गया था । वह घर की खूब सफाई फरके अच्छे से अच्छा भोजन बनाकर पति की प्रतीक्षा कर रही थी । दूर गे जब उसने देखा कि गाटी मे बुड्ढा समर भी बैठाया रहा है तो वह कोष ने तिलमिला उठी। उसकी अरमानों पर पानी फिर गया । जैसे ही गाडी दरवाजे पर आकर सकी, वह हाथ मटकाती हुई गुस्से में पति से बोली, "अरे तुम इस जिन्दा लाश को फिर घर मे उठा लाए ।"

    वसिट्ठक अब अपने बाप का अपमान नही सह सकता था । उसने गाडी से उतरकर उस दुष्टा स्त्री को खूब पीटा और उसके बाद घर से हमेशा के लिए निकाल दिया। स्त्री अपमानित होकर एक पडौसी के घर मे रहने लगी। उसे यह आशा थी कि कभी न कभी वसिट्ठक उसे मनाने आएगा । इसी आशा मे वह स्वय अभिमान से ऐठी वैठी रही।
    इधर वसिट्ठक का पुत्र यह चाहता था कि उसकी मा अब काफी दण्ड पा चुकी है, इसलिए अपने अपराध के लिए क्षमा मागकर फिर घर मे लौट आए । लेकिन इसका कोई रास्ता नहीं निकलता था। एक दिन वह अपने बाप से बोला, "बाबूजी । मेरे कहने से कल आप यह कहकर कि मैं अपना दूसरा विवाह तय करने जा रहा हूँ, यहा से गाडी मे कही चले जाइए फिर शाम तक घूम-फिरकर लौट आइए।"

    वसिट्ठक पुत्र को वात कभी नही टालता था। दूसरे दिन वह सबमे यही बहाना बनाकर चला गया। यह बात उसकी पत्नी के कानो तक पहुच गई । वह भविष्य की कल्पना करके घवरा उठी और सारा मान छोकर धीरे-धीरे अपने पुत्र के पास पहची। पुत्र के पैरो पर मिर रखकर उसने कहा, “बेटा? मुझे तुम्हारा ही भरोमा हे । तुम अपने बाप से कहकर मेरे अपराधो को क्षमा करवा दो और मुझे इस घर मे वापस बुलवा लो। अब में ऐसा कोई काम नही करूगी।"

    पुत्र ने माँ की बात मान ली। शाम को बाप के लौटने पर वह उससे बोला, "बावजी ? अब मा को फिर से इस घर में बुला लीजिए। अब वह ठीक गरते पर आ गई है वीर अपने अपराध के लिए सच्चे हृदय मे क्षमा माग रही है । कैसी भी हो, वह आपकी धर्मपत्नी पीर मेरी मा ही ठहरी !"
    बमिट्टर ने कहा, "बेटा, तुम्हारी ऐनी इच्छा है तो जाकर उसे लिया लायो।"
    बेटा जाकर अपनी मा को फिर घर मे ले पाया। उस स्त्री ने पति से रो रो-रोकर अपने अपराधों के लिए क्षमा मागी। उसके नौभाग्य म. दिन लोट पाए ।  उजड़ा घर फिर बस गया।
    जिन सुपुत्र ने अपने पिता को पाप करने से बचाया उसी पुत्र ने अपनी पापिन माता का भी उदार कर दिया । यह सच्चा सपूत था।

    No comments