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    बोलती फ़िल्मों का दौर, जिसने बदल दिया भारतीय सिने जगत को


    बोलती फ़िल्मों का दौर, जिसने बदल दिया भारतीय सिने जगत को 

    मूक फ़िल्मों का दौर काफी लंबा चला, फिर आया बोलती फ़िल्मों का दौर। सबसे पहले 1929 में अमेरिकी फ़िल्म द जॉज सिंगर में आवाज़ आई और उसके बाद 1931 में आर्देशिर माखान ईरानी ने भारत में पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा' बनाई।

    आर्देशिर माखान ईरानी प्रयोगधर्मी थे, वे सिनेमा के क्षेत्र में हमेशा कुछ नया सोचते और करते रहते थे। बोलती फिल्म बनाने के लिए ईरानी और उनके सहयोगी रुस्तम भरूचा ने लंदन जाकर पंद्रह दिनों में ध्वनि मुद्रण की कला सीखी और उस अधूरे ज्ञान के सहारे ही 'आलम आरा' में आवाज रिकॉर्ड की। उन्होंने एक नया काम भी अनजाने में ही कर दिया। उन दिनों अक्सर रिफ्लेक्टर की सहायता से सूरज की रोशनी में आउटडोर शूटिंग होती थी। ईरानी को बहारी आवाजें कष्ट दे रही थी, इसलिए उन्होंने स्टूडिओ के भीतर राज के सन्नाटे में लाइट जलाकर शूटिंग की और इस तरह अनजाने में ही पहली बार अप्राकृतिक रोशनी में शूटिंग की परंपरा शुरू हो गई।

    'आलम आरा' का निर्माण ईरानी ने इम्पीरियल फिल्म कंपनी के बैनर तले किया था। इसका प्रदर्शन 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में हुआ। फ़िल्म में मास्टर विट्ठल, पृथ्वीराज कपूर, विलीमोरिया, डब्लू. एम. खान, याकूब, महबूब खान, सुलोचना, जुबैदा, जगदीश सेठी आदि ने काम किया था। फ़िल्म में सात गाने थे। इन गीतों को संगीत में ढाला था फिरोजशाह मिस्त्री और वी. करानी ने। इसमें पहला गीत गाया था वजीर मोहम्मद खान यानी डब्लू. एम. खान ने। उनकी आवाज़ में गाया गीत था 'दे दे खुदा के नाम पर प्यारे ताकत हो गर देने की...।' लोग फ़िल्म के गीत सुनकर रोमांचित हो उठे थे, क्योंकि उनके लिए यह एक करिश्मा था। इस फ़िल्म को देखने के लिए लोगों ने हँसते-हँसते पैसे खर्च किए।

    उन दिनों यहूदी लेखक जोसफ डेविड का पारसी स्टेज और नाटक 'आलम आरा' बहुत पसंद किया गया था, तो फ़िल्म के लिए उसका रूपांतर कर लिया गया और वही गाने रखे गए। शहर की सड़कों, गली-कूचों में घोड़ा-गाड़ी पर टीन के भोंपू लगाकर जोर-जोर से आवाज़ लगाई गई, मुर्दा जिंदा हो गया, नया अजूबा देखो चार आने में..., बोलती, चलती और नाचती तस्वीरें देखो चार आने में..., गजल-शेर और गीत-संगीत का मजा लो चार आने में..., सात गाने, छह नाच आलम आरा में देखा चार आने में..। 'आलम आरा' के सभी गानों में सिर्फ तीन साज हारमोनयिम, तबला और वायलिन का इस्तेमाल हुआ था। इस फिल्म के सातों गाने तब के संगीत के प्रेमियों को हल्के-फुल्के और अजीब-से लगे थे, क्योंकि वे सुरीले नहीं थे। वजह साफ़ थी कि पर्दे पर गाने वाले ये कलाकार अच्छे गायक नहीं थे। इन गानों के ग्रामोफोन रिकॉर्ड आज उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि रिकॉर्ड तो 1934 में बनने शुरू हुए थे। 'आलम आरा' के अन्य गीतों के बोल थे, बदला दिलाएगा रब तू ही सितमगोरों से, तू मदद पर है तो क्या खौफ़ जफ़ाकारों से..., रूठा है आसमां गुम गया मेहताब, दुश्मन है अहले जहाँ है, वीरां मेरा गुलिस्ता..., तेरी कटीली निगाहों ने मारा, निगाहों ने मारा जफ़ाओं ने मारा, भवें कमानी, नैना रसीले, इन दोनों झूठे गवाहों ने मारा..., दे दिल को आराम ऐसा ही गुलफाम, हो शादमान, तू हाय दिलाराम, भर दे मीना जाम, होगा तेरा नाम..., भर भर के जाम पिला जा, सागर के चलाने वाले, जालिम तेरी अदा ने, जादू भरी निगाह ने, जख्मी हमें बनाया, ओ तीर चलाने वाले.... दरस बिना मोरे हाय तरसे नयना प्यारे, मुखड़ा दिखा मोहे दिखा जा रे...।

    'आलम आरा' से फिल्मों में संगीत की शुरूआत भी हुई, दो घंटा चालीस मिनट की यह फ़िल्म टेनर साउंड सिस्टम में बनाई गई थीं।

    जोसेफ डेविड द्वारा लिखित इस फैंटसी फ़िल्म की कहानी एक बूढ़े राजा और उसकी दो रानियों नवबाहर और दिलबहार के बीच राज्य की बागडोर संभालने के लिए रचे जा रहे षड्यंत्र की थी, क्योंकि एक नजूमी ने नवबहार के राजा का उत्तराधिकारी बनने की भविष्यवाणी कर दी थी।

    _ 'आलम आरा' की कहानी मछली के पेट से निकाले गए हार के इर्द-गिर्द घूमती है। मास्टर विट्ठल इसमें शहजादा कमर बने थे और उनके पिता की भूमिका निभाई थी एलाइजर ने। उनकी पहली बेगम नौबहार बनी थीं जिल्लोबाई और दूसरी बेगम दिलबहार बनी थीं

    | सुशीला। फ़िल्म में जुबैदा के अब्बा पृथ्वीराज कपूर बने थे, जिन्हें जुबैदा बादशाह की कैद से आजाद कराने का बीड़ा उठाती है। फ़िल्म में जुबैदा की परवरिश जंगल में रहने वाला एक रुस्तम करता है। रुस्तम की भूमिका निभाई थी जगदीश सेठी ने।

    इस फिल्म और इसके संगीत को जबरदस्त सफलता मिली। फ़िल्म का वजीर मोहम्मत खान का गाया 'दे दे खुदा के नाम पर' गीत लोगों की जुबान पर था। दिन के शोर-शराबे से बचने के लिए 'आलम आरा' की पूरी शूटिंग रात में हुई थी।

    कलाकारों की आवाज़ टेप करने के लिए माइक्रोफोन कैमरे के दायरे में छुपा दिया जाता था। इस फ़िल्म का अंतिम प्रिंट पुणे फ़िल्म संस्थान में लगी एक आग में नष्ट हो गया।

    फ़िल्म समालोचक रफीक बगदागी के अनुसार 1931 की भारतीय वाक फ़िल्म 'आलम आरा' न केवल मूक-फ़िल्म की उत्तराधिकारी थी, बल्कि विरासत में उसे अधिक शक्तिशाली तथा व्यापक आधार वाला माध्यम मिला। नये माध्यम में उसे एक ऐसी संगीत सरिता मिली जो सैकड़ों वर्षों की नाट्य परंपरा के रूप में निरंतर बहती चली आ रही थी। मनोरंजन के नये साधन के रूप में फिल्मों ने नाटक के अन्य रूपों को समाप्त कर दिया। नये थियेटर ने लगभग उन्हें आंखों से ओझल कर दिया। गाने प्रायः पाश्चात्य लय-ताल पर आध रित होते थे और उनकी संगीत रचना नये वाद्ययंत्रों से की जाती थी। और फिर उपकरण भी तो थे।

    परंतु मुख्य प्रश्न तो यही है कि 'आलम आरा' ही क्यों? दरअसल, यह उस समय के लोकप्रिय मंच नाट्य का ही रूपांतरण था और इसमें अरेबियन नाइट्स जैसी आभा अथवा कथावस्तु थी। इस नाटक में एक ऐसे सुल्तान की कहानी प्रस्तुत की गई थी जिसकी दो बेगमें थीं जिनमें से एक दास कन्या थी। मूल नाटक के लेखक थे जोसेफ डेविड जिन्हें लोग जेवसाब दादा कहा करते थे। वे एक अतुलनीय प्रतिभा वाले व्यक्ति थे जिन्हें उर्दू, हिंदी, गुजराती और मराठी भाषा में महाभारत के अलावा स्कैन्डिनैवियन, यूनानी, यहूदी, मिस्री, ईरानी, चीनी और भारतीय पुराणों और साहित्य का भी अच्छा ज्ञान था। उन्हें भारतीय नृत्यकला की भी प्रामाणिक जानकारी थी और वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के भी अच्छे पारखी थे। 'आलम आरा' की पटकथा लिखने के पूर्व वे 100 से अधिक नाटक लिख चुके थे। 'आलम आरा' में उन्होंने एक ऐसी काल्पनिक कथा की रचना की जो सभी वर्ग के लोगों को अच्छी लगे। ऐसा इसलिए भी किया गया ताकि बोलती फ़िल्मों की असाधारण घटना को त्वरित लोकप्रियता मिल सके।

    जुबेदा फ़िल्म की नायिका और अपने जमाने की सितारा कलाकार सचीन के नवाब और बेगम फातिमा की बेटी थीं। बेगम फातिमा ने 1926 में बुलबुल-ए-परिस्तान का निर्देशन कर भारत की पहली महिला फ़िल्म निर्देशक होने का गौरव हासिल किया था। जुबेदा ने 12 वर्ष की आयु में फ़िल्मों में प्रवेश किया था और जब उन्होंने 'आलम आरा' में काम किया तब वे 19 वर्ष की थीं। दो वर्ष बाद, 21 वर्ष की आयु में उन्होंने धनराजगीर के पूर्व नरेश से शादी कर ली। उस समय तक वे 36 मूक और 20 बोलती फ़िल्मों में काम कर चुकी थी।

    मास्टर विट्ठल भी, जिन्होंने जुबेदा के नायक के तौर पर फ़िल्म में अभिनय किया, अपने समय के एक और बड़े सितारे थे। कहा जाता है कि उन्होंने अपना फ़िल्मी जीवन एक कार्यालय सहायक के रूप में शुरू किया था

    और निर्देशक भालजी पेंढारकर ने उन्हें नायक की भूमिका निभाने का अवसर दिया था। बाद में वह शारदा फ़िल्म्स में काम करने लगे और बहुत सफलता प्राप्त की। परंतु वहां कोई आर्थिक लाभ न मिलने के कारण वे ईरानी की इंपीरियल फ़िल्म कंपनी में काम करने चले आए जिसके लिए शारदा फ़िल्म्स ने उनके विरुद्ध मुकदमा भी दायर किया था। मास्टर विट्ठल के मुक़दमे की पैरवी और किसी ने नहीं, बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी और वे मुकदमा जीते भी। 'आलम आरा' में काम करने के पूर्व मास्टर विट्ठल पांच मक फिल्मों में काम कर चुके थे। उनकी भूमिका की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि भारत की पहली बोलती फ़िल्म में मास्टर विट्ठल को मौन रहने को कहा गया, क्योंकि वे बार-बार अपने संवाद भूल जाते थे।

    वजीर मोहम्मद खां रिकार्डिंग मशीन का काम देखने आए थे और उन कुछ लोगों में से थे जिन्हें गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। ईरानी ने उन्हें सुना और फिर एक गाना फारसी में भी गाने को कहा और आखिर में उन्हें एक बुर्जुग फकीर की भूमिका दे दी। उनका गाया गीत फिल्म के सबसे लोकप्रिय हिस्सों में से एक था-दे दे खुदा के नाम पे, प्यारे ताकत तो गर देने की....

    दुख की बात है कि अब न तो गाने की रिकार्डिंग और न ही उसपर फ़िल्माए गए दृश्य का कोई भाग ही उपलब्ध है। फ़िल्म में सात गाने थे, परंतु बाद में बनी मदन थियेटर की फ़िल्मों-शकुंतला में 41 गाने और इंद्रसभा में 71

    गाने थे। इंद्रसभा ने परियों की कहानी वाली फ़िल्मों के युग का अंत कर दिया __ और उसके स्थान पर अधिक रुचिकर और चुनौतीपूर्ण कथानक आजमाए जाने लगे। एक-दो वर्ष बाद सभी फ़िल्में बोलने और गाने लगीं।

    उस समय इस फ़िल्म को लेकर लोगों में कितनी उत्कंठा और दिलचस्पी थी इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने पाठकों से फ़िल्म के बारे में अपने विचार लिखने को कहा और उसके लिए 25 रुपये का पुरस्कार भी रखा। तब फ़िल्म निर्माण के लिए कोई साउंडप्रूफ स्टूडियो नहीं हुआ करता था। शूटिंग रात के समय करनी होती थी। इसका अर्थ था भारी-भरकम प्रकाश व्यवस्था। कहा जाता है कि ईरानी ने 6 लाइटों से काम चलाया था। उनका स्टूडियो एक रेलवे लाइन के पास था जिसके कारण उन्हें उस समय शूटिंग करनी पड़ती थी जब रेलगाड़ियों का चलना कम हुआ करता था। ध्वनि रिकॉर्ड करने वाले कर्मचारियों को कबूतर उड़ाने का काम भी करना होता था।

    ईरानी रिकॉर्डिंग में मदद के लिए ब्रिटेन से विम्फ्रेड डेमिंग को लेकर आए थे। रिकॉर्डिंग मशीन के पुर्जा को जोड़ने और उसके काम करने का तरीका समझाने के लिए ईरानी को डेमिंग को सौ रुपये प्रतिघंटे की दर से भुगतान करना होता था जोकि एक बहुत बड़ी रकम थी। कभी हिम्मत न हारने वाले ईरानी ने एक महीने के भीतर ही यह तकनीक सीख ली और अपने सहयोगी रुस्तम भरूचा की मदद से स्वयं ही सारी रिकार्डिंग की।

    कैमरे भी पुरानी तकनीक के थे और उनसे बहुत आवाज़ आती थी। इससे भावूपर्ण संवादों की रिकार्डिंग के साथ-साथ कैमरे की आवाज़ भी भर जाती थी। इस शोर का दबाने के लिए ईरानी को रजाइयों और गद्दों का उपयोग करना पड़ा। कैमरे की नज़र से माइक को छुपाना भी एक कला थी, जिसपर महारत हासिल करना जरूरी था और फिर नयी प्रौद्योगिकी की बात आई। कच्ची फ़िल्में, प्रयोगशाला के रसायन और तमाम तरह के हिस्से-पुर्जा का आयात करना पड़ता था जिसमें समय लगता था। कम मात्रा में आयात करना महंगा पड़ता था। फॉक्स मूवीटोन के पास बोलती फिल्म बनाने योग्य ऐसे उपकरण थे जिनसे वे भारत में समाचार-चित्र न्यूज़ रील बनाया करते थे। इसे रात में किराये पर लिया जा सकता था।

    उस समय बैक प्रोजेक्शन, डबिंग, ट्रॉली शॉट्स, पार्श्व ध्वनियाँ जैसी तकनीकी सुविधाएँ भी नहीं थीं। चूंकि तब मूवियोला भी नहीं हुआ करता था जिससे फ़िल्मों की कटिंग (कटाई) कठिन काम हुआ करता था। पहले के ध्वनि उपकरण भी झंझटिया थे और कोई बहुत कुशलता से काम नहीं करते थे।

    मूक फ़िल्मों के कलाकारों के चेहरे-मोहरे सुंदर और आकर्षक होते थे और वे अभिनय कर लेते थे, परंतु अब उनकी आवाज़ की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। चेहरे के आकर्षण के अलावा कलाकार की आवाज़ भी अच्छी होनी चाहिए थी। बहुत-सी आंग्ल-भारतीय अभिनेत्रियों ने काम करना छोड़ दिया, क्योंकि वे हिंदी नहीं बोल पाती थीं। इसकी सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण शिकार बनी सुलोचना (रूबी मायर्स) जोकि उस समय की सबसे सुंदर अभिनेत्रियों में गिनी जाती थी और उन्हें सबसे अधिक पैसा मिलता था। संगीतकारों, संवाद लेखकों के साथ-साथ गायकों की भी आवश्यकता होती थी। शुरू से लेकर आखिर तक पूरी योजना बनानी होती थी। ईरानी धुनों के चयन और अभ्यास के समय मदद लिया करते थे। इस काम में वे हारमोनियम और तबले का सहारा लिया करते थे। उस समय यही दो साज उपलब्ध हुआ करते थे कभी-कभी वायलिन की संगत भी मिल जाती थी। पार्श्व गायन प्रणाली की अनुपस्थिति में सभी गाने अभिनय के साथ-साथ ही रिकॉर्ड उपकरण की एकल प्रणाली का प्रयोग किया जाता था जिसमें ध्वनि सीधे फ़िल्म की निगेटिव में रिकॉर्ड हो जाया करती थी। बाद में जो बहु-उपयोगी दोहरी प्रणाली उपयोग में आई उसमें चित्र और ध्वनि अलग-अलग रखी जाती थी। इनको बाद में प्रयोगशाला में जोड़ा जाता था। फिल्म निर्माण की पूरी कवायद में यह अंतिम चरण हुआ करता था। इससे संपादन में कुछ छूट भी मिल जाती थी।

    इन सब कार्यों में अत्यधिक गोपनीयता की भी आवश्यकता होती थी। ईरानी ने जब 'आलम आरा' बनानी शुरू की. तब उन्हें पता था कि कलकत्ता (आज का कोलकाता) में मदन भी अपनी बोलती फिल्म पर काम कर रहे थे। यह एक अनूठी स्पर्धा थी और गोपनीयता जो बरती हुई उसने अपने आप को सही साबित कर दिया।

    ईरानी ने इस सभी चुनौतियों का सामना किया और इस कार्य में किसी विदेशी तकनीशियन अथवा सलाहकार की मदद नहीं लीं। अति उत्सुकता और उत्कुंठा के मिले-जुले माहौल में 14 मार्च, 1931 को फ़िल्म प्रदर्शित की गई। मदन थियेटर की जमाई षष्ठी के एक माह पूर्व। इसके बनाने में चार माह का समय लगा था और कुल 40 हज़ार रुपये का खर्च आया था। फ़िल्म की लंबाई ___ 10500 फिट थी।

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