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    चावलों में कंकड़

    Rice pebbles


    चावलों में कंकड़ 

    संत पुरंदर गृहस्थ थे तो भी क्या लोभ, क्या काम और क्रोध उन्हें छू भी नहीं गए थे। दो-तीन घरों में भिक्षाटन करते, उससे जो दो मुट्ठी चावल और आटा मिल जाता उससे वे अपना और अपनी धर्मपत्नी सरस्वती देवी का उदर पोषण कर लेते और दिनभर लोकसेवा के कार्यों में जुटे रहते।

    एक दिन विजय नगर के राजपुरोहित व्यासराय ने महाराज कृष्ण देवराय से कहा-"राजन! संत पुरंदर गृहस्थ होकर भी राजा जनक की तरह विकार मुक्त हैं, दिनभर बेचारे पिछड़ों को ज्ञान दान देने, कष्ट पीड़ितों की सेवा करने में लगे रहते हैं। स्वार्थ की बात तो उनके मन में ही नहीं आती।" महाराज कृष्णदेव राय हँसे और बोले-"गृहस्थ में रहकर कौन तो निर्लोभ रहा, कौन काम-वासना से बचा? यदि गृहस्थ में ऐसा संभव हो जाए तो संसार के सभी मनुष्य अपना शरीर सार्थक न कर लें।"

    कर सकते हैं-व्यासराय बोले-"यदि लोग संत पुरंदर और देवी सरस्वती की भाँति निर्लोभ, सेवापरायण व सरल जीवन जीना सीख लें।" महाराज कुछ खिन्न से हो गए, बोले-"ऐसा ही है तो आप उनसे कुछ दिन यही हमारे यहाँ भिक्षाटन के लिए कह दें।" व्यासराय ने संत पुरंदर से जाकर आग्रह किया-"आप आगे से राजभवन से भिक्षा ले आया करें।" संत पुरंदर ने कहा-"मैं जिन लोगों के बीच रहता हूँ, जिनकी सेवा करता हूँ उन अपने कुटुंबीजनों से मिल गई भिक्षा ही पर्याप्त है। दो ही पेट तो हैं उसके लिए राजभवन जाकर क्या करूँगा?" पर व्यासराय तब तक बराबर जोर डालते रहे जब तक संत ने उनका आग्रह स्वीकार नहीं कर लिया।

    संत पुरंदर राजभवन जाने लगे। वहाँ से मिले चावल ही उनके उदर पोषण के लिए पर्याप्त होते। संत अपनी सहज प्रसन्नता लिए हुए जाते, उसका अर्थ महाराज कुछ और ही लगाते। एक दिन तो उन्होंने व्यासराय से कह भी दिया-"देख ली आपके संत की निस्पृहता! आजकल देखते नहीं कितने प्रसन्न रहते हैं।"व्यासराय बोले-"आपका तात्पर्य समझा नहीं।" इस पर महाराज ने कहा-"आप मेरे साथ चलिए अभी बात स्पष्ट हो जाएगी।" महाराज राजपुरोहित के साथ संत पुरंदर के घर पहुंचे, देखा उनकी धर्मपत्नी चावल साफ कर रही है। महाराज ने पूछा-"बहन! यह क्या कर रही हैं?" इस पर वे बोलीं-"आजकल न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं इन चावलों में कंकड़-पत्थर भरे पड़े हैं।" यह कहकर उन्होंने अब तक बीने कंकड़ उठाए और बाहर की तरफ उन्हें फेंकने चल पड़ीं। महाराज बोले"भद्रे यह तो हीरे-मोती हैं जिन्हें आप कंकड़-पत्थर कहती हैं।" सरस्वती देवी हँसी और बोली-"पहले हम भी यही सोचते थे, पर अब जब से भक्ति और सेवा की संपत्ति मिल गई इनका मूल्य कंकड़ पत्थर के ही बराबर रह गया।" महाराज यह उत्तर सुनकर अवाक रह गए। वे आगे और कुछ न बोल सके।

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