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    दूर ही से नमस्कार

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    दूर ही से नमस्कार

    बहुत दिनो की बात है, गगाजी के तट पर दो सन्यासी अलग-अलग कुटी बनाकर रहते थे । दोनो सगे भाई थे और ससार से वैराग्य लेने के बाद भी आपस मे मिलते-जुलते रहते थे। एक दिन छोटा भाई अपनी कुटी मे अकेला बैठा था । उसी समय मणिकण्ठ नाम का एक नागराज घूमता-घामता वहा पाया और उसके पास प्रणाम करके वैठ गया। दोनो मे बाते होने लगी। दोनो एक-दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए।

    इसके बाद मणिकण्ठ नित्य पाने लगा। दोनो की मित्रता दिन-दिन गाढी होने लगी। मणिकण्ठ को उमसे इतना प्रेम हो गया कि वह विना गले मिले कभी उमसे अलग नहीं होता था । वहा से जाने के पहले वह स्नेहपूर्वक फण निकालकर अपने प्रेमी मित्र से लिपट पाता। इधर तो वह स्नेह दिखाता, उधर सन्यासी य ने व्याकुल हो जाता। वही हाल था-'वे डोलतरस आपने, उनके फाटत अग ।' उससे न कुछ कहते बनता था और न सहते । कोई प्रेम से अपने घर आए और प्रेम दिखाए तो उसे कैसे रोका जाए ! लेकिन यह प्रेम बडा भयकर था । साप जव उसके गले से लिपटता तो ऐसा लगता मानो गले मे मौत का फन्दा पड गया। वेचारा डर के मारे सूखा जाता । नागराज प्रेम से विह्वल होकर बडी देर तक लिपटा ही रहता था। सन्यासी के लिए वह घोर सकट का समय होता था। यह एक दिन की बात तो थी नही । नागराज ने तो मित्र का घर देख लिया था। रोज वह एक बार हाजिरी देने ज़रूर पाता था। मतलब यह कि सन्यासी के प्राण रोज ही सकट मे पड़े रहते थे। भय-चिन्ता से वह धीरे-धीरे सूखने लगा।

    एक दिन वह अपने भाई से मिलने गया । बडे भाई ने उसे बहुत दुर्बल और उदास देखकर उससे इसका कारण पूछा । छोटे भाई ने अपनी रोज़ की मुमीवत कह सुनाई । इसपर बडे भाई ने पूछा, “तुम उससे मित्रता रखना चाहते हो या नही ?"

    छोटा सन्यासी वोला, "अरे नही भया ! ऐसे मित्रो से भगवान् बचाए । मैं तो उससे दूर भागना चाहता है, लेकिन वह मेरा पिण्ड ही नहीं छोडता ! उसका तो ध्यान आते ही मेरे अंग-अंग सूख जाते है। लेकिन उसे मैं कैसे रोकं ?"

    बड़े संन्यासी ने फिर पूछा, "अच्छा यह बतायो कि वह अाभूपण पहनकर पाता है या यों ही।"

    छोटा सन्यामी बोला, "सिर पर वह एक बडी चमकदार मणि धारण किए रहता है; वह उसे बहुत प्रिय है।"

    बड़े सन्यासी ने कहा, "वस, तो तुम कल उसके प्राते ही उस मणि को उससे मांगना। यदि वह न दे तो परसो जैसे ही वह कुटो के सामने पहुचे, तुरन्त मागना । और यदि उस दिन भी न दे तो तरसों जैसे ही वह नदी में से निकलने लगे, तुम तीर पर खड़े होकर मणि की याचना करना।"

    छोटा सन्यासी बड़े भाई से यह नीति-शिक्षा लेकर लौट गया। दूसरे दिन जैसे ही नागराज कटी में पाकर बैठने लगा, वैसे ही छोठे सन्यासी ने कहा, "मित्रवर ! प्रापकी यह मणि मुझे बहुत अच्छी लगती है । प्राप इसे मुझे भेट कर दे तो मुझे अपार प्रसन्नता होगी।"

    नागराज ने उपर्क विगेप प्रायह करने से पहले ही यहां से चला जाना उचित समझा । वह बीच ही में बात काटकर बोला, "भाई ! अज तो मुझे एक आवश्यक काम से एक दूसरी जगह जाना है, सो मैं सिर्फ हाजिरी देने आया ह, आओ गले मिल ले तो जाए।" यह कहकर नागराज गले से लिपट गया । उस दिन सन्यासी को और भी अधिक भय लगा, क्योकि उसे शका थी कि कही मित्रजी नाराज न हो गए हों। नागराज उससे मिल-मिलाकर चला गया ।

    दूसरे दिन उसने सोचा कि सन्यासी के मन का लोभ शान्त हो गया होगा । इसलिए वह ठीक समय पर फिर मिलने पहुचा । उस दिन सन्यासी ने कुटी के बाहर ही उसका स्वागत करते हुए कहा, "मित्रवर । आज तो मैं बिना कुछ भेट लिए आपको जाने ही न दूगा? अपनी यह मणि दे दीजिए न क्यो तरसाते है ?"

    नागराज चौककर बोला, "सुनो भाई । अच्छे मिले । मैं तो कही कहने को चला पाया था कि प्राज मेरी प्रतीक्षा मत करना, मुझे एक आवश्यक काम है । अायो यले मिल ले, अव कल बाते करेंगे।"

    यह कहते-कहते नागराज पहले की भाति उसके गले से लिपट गया । सन्यासी भुजगभूपण शिव की तरह खड़े-खड़े मन ही मन 'शिव-शिव' का जाप करता रहा।

    तीसरे दिन नागराज का मन कुछ पिछटने लगा,

    लेकिन मिय के साय गप-गप करने का चस्का लग चुका था। वह यह सोचकर चल पडा कि संन्यासी की तृष्णा इतने समय में अवश्य बुझ गई होगी। जैसे ही उसने पानी के ऊपर सिर निकाला, वैसे ही तीर से सन्यासी ने पुकारकर कहा, "प्रायो, प्रायो, मित्र ! मैं तो तुम्हारी मणि के लिए बेचैन होकर बडी देर से खडे-खडे देख रहा हूं; आज इसे पहले दे दो, तब आगे वात होगी।"

    नागराज के पास मणि-रत्नो की कमी नही थी, फिर भी, उस यादमी की याचना उसे प्रिय नही लगी। उसके मन में लोभी मित्र के प्रति द्वेप उत्पन्न हो गया। वह उसे दूर से ही नमस्कार करके चला गया और फिर नही पाया। उस दिन से दोनो की मित्रता भग हो गई।

    वास्तव में वहत मांगने वाले से मनुष्य द्वेप करने लगता है। इसलिए कभी किसीसे उसकी प्रिय वस्तु मांगना ठीक नहीं है

    न तं याचे यस्स पियं जिगिसे, देस्मो होत अतियाचनाय ।


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