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    पेट का दूत

    Belly messenger


     पेट का दूत 

    प्राचीन काल में एक राजा भोजन का बहत शौकीन था। शौक का काम प्रायः लोग दूसरों को दिखाकर करते हैं। राजा को भी अधिक से अधिक प्रादमियों के आगे शान से खाने में मजा आता था। इसके लिए उसने अपने राजद्वार के सामने एक सुन्दर भोजनगाला वनवाई थी। उसमें दोपहर के समय बहुत-से दर्शको के सामने बैठकर राजा बढ़िया राजसी भोजन करता था। वह गपागप भांति-भांति के व्यंजन खाता और लोग सडे-बडे ताकते । खाने का यह तमाशा कभी-कभी नहीं, नित्य होता था।

        एक दिन राजा नित्य की भाति खाने बैठा । उस दिन दनकों की भारी भीड भी। लोग ललचाई वालों से राना की पेट-पूजा देन रहे थे। सोने के थाल मे तरह-तरह के सुन्दर, स्वादिष्ठ पदार्य देवकर सबके मुह में पानी भर याता पा। सभी अपने-अपने लोन दवाने मे लगे थे।

        उस भीड मे कही से एक महालोभी मनुष्य भी उस दिन आ गया था। वह दूर से राजा को बढियावढिया माल खाते देखकर लोभ से व्याकुल हो गया । कुछ देर तक तो वह खडे-खडे लार टपकाता रहा, लेकिन बाद मे उससे लोभ के मारे रहा नही गया । राजा से तो किसीको कुछ मिलने की आशा थी नही, इसलिए उसने स्वय खाने पर टूट पडने की ठान ली। वह अपने दोनो हाथ उठाकर 'मै दूत हू, मैं दूत हूँ' कहता हुआ आगे बढा । उस समय दूत को राजा के पास तक जाने का विशेप अधिकार था । कोई उसके रास्ते में रुकावट नही डाल सकता था । उपस्थित नागरिको ने उसे कही का राजदूत मानकर तुरन्त राजा के पास जाने का रास्ता दे दिया । 

        वह वडी आसानी से राजा के पास पहुच गया और विना कुछ कहे-सुने थाल मे से मनचाही चीजें उठा-उठाकर खाने लगा। लोभ के मारे न उसे डर लगा न सकोच । खाने में मक्खी पडने से वह खराब हो जाता है। यहा तो यादमो पड गया था। राजा के रग मे भग पड गया । दर्शक लोग उस आदमी का दुस्साहस देखकर दग रह गए और उसे बुरा-भला कहने लगे । सिपाही लोग चारो ओर से 'पकडो-पकडो,' 'मारो-मारो' कहते हुए दौड पडे । 

        राजा ने स्वय भोजन करना बन्द कर दिया। सिपाही लोग उसे पकडकर उठाने लगे । राजा ने उन्हें रोक दिया और लोभी आदमी को भरपेट भोजन करने को स्वतन्त्रता दे दी। जव वह आदमी खा-पीकर तृप्त हो गया और अपने पेट पर हाथ फेरते हुए डकारे लेने लगा, तब राजा ने उपसे पूछा, "क्यो जी? तुम किसके दूत हो ? किसके कहने से और किस प्रयोजन से यहा पाए हो ?" वह आदमी निर्भय होकर बोला, “महाराज, मैं उन पेट महाराज का दूत हू जिसके वश मे सारा समार है, जिसकी सेवा मे ससार के सभी प्राणी दिनरात लगे रहते है और घर छोडकर परदेश मे दर-दर मारे-मारे फिरते है, मेहनत-मजदूरी करते है तथा नीचो और गयो के ग्रागे भी बेशर्मी से हाथ फैला देते है । जिन पेटजी की प्राज्ञा अाप भी मानते है, उन्हीका मे एक तुच्छ दूत हू । मैं यहा उन्हीकी इच्छा पूरी करने आया है।" 

    ___ राजा इस उत्तर को सुनकर मौन हो गया और सोचने लगा-यह आदमी ठोक ही तो कहता है, ससार के सभी लोग पेट की सेवा में दिन-रात लगे रहते है । उसीके लिए कोई नोकरी करता है, कोई व्यापार; कोई चोरी करता है और कोई ठगी । सभी तो पेट के वश मे है । मैं भी पेट की पूजा में लगा रहता हूं। वास्तव में, पेट की माया हो संसार को चलाती है, आदमी उसीके लिए सब कुछ करता है। इस विचार के आते ही राजा का क्रोध शान्त हो गया। जब उसने अपने को पेट का चाकर समझ लिया तो दूसरे पेट के दूत के लिए उसके मन में सहानुभूति अपने-याप पैदा हो गई । उस आदमी से राजा ने अमूल्य ज्ञान की बात पाई थी। उसके बदले में उसने उसे पेट-पूजा के लिए बहुत-सा धन सधन्यवाद देकर विदा किया।

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