Sunday, March 16.
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    दुनिया का कोई रास्ता किसी को कहीं नहीं पहुंचाता - ओशो

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    दुनिया का कोई रास्ता किसी को कहीं नहीं पहुंचाता - ओशो 

    बच्चों की एक छोटी कथा है। अलाइस नाम की लड़की परियों के देश में पहुंच गई थी। जब वह परियों के देश में पहुंची जमीन से चलते-चलते बहुत थक गई थी। आकाश में पहुंच गई तो बहुत थकी हुई थी। जमीन से चलना, छोटी बच्ची, भूख प्यास लग आई थी उसे। वहां जा कर उसने देखा शीतल ठंडी हवाएं बहती हैं। बड़ी सुंदर जगह है, पर भूख उसे जोर से लगी है। चारों तरफ आंखें दौड़ाई, देखा थोड़ी ही दूर पर, जरा से फासले पर, सौ कदमों की दूरी पर परियों की रानी खड़ी है। उसके हाथ में फलों के मिठाइयों के थाल हैं। और वह रानी उसे बुला रही है कि अलाइस आ, उसे इशारा कर रही है।

    अलाइस ने दौड़ना शुरू किया, सुबह थी तब सूरज निकल रहा था। वह भागी, सौ ही कदम का फासला था, दो क्षण का फासला था लेकिन भागी, भागी सूरज ऊपर चढ़ने लगा और वह घबड़ा गई। वह भागती जा रही है रुक के देखती जाती है। फासला उतना ही है डिस्टेंस उतना ही है। वह रानी अब भी खड़ी है, दरख्त के नीचे, हाथ में उसके फलों के थाल है और वह इशारा करती है कि आओ, उसकी आवाज सुनाई पड़ती है कि आ जाओ अलाइस। वह फिर भागती है सूरज ऊपर आ गया। धूप कड़ी हो गई। वह थक गई पसीने से भर गई। उसने रुक कर खड़े हो कर चिल्ला कर पूछा यह क्या मामला है? सुबह से दोपहर हो गई दौड़ते-दौड़ते फासला छोटा मालूम पड़ता है लेकिन मैं दौड़ती चली जा रहीं हूं और तुम उतनी ही दूर हो जितनी दूर थीं।

    उस रानी ने कहा यह मत सोचो, जो सोचते हैं वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। दौड़ो, सोचने वाला मुश्किल में पड़ जाता है उसने कहा। दौड़ो, दौड़ने वाला पहुंचता है सोचने वाला मुश्किल में पड़ जाता है। उसको भूख लगी थी वह फिर दौड़ने लगी। सूरज ढलने को आ गया सांझ हो गई, वह अलाइस थक कर गिर पड़ी। फासला उतना का उतना था। उसने चिल्ला कर पूछा रानी यह कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से सांझ हो गई मेरे दौड़ते दौड़ते। यह रास्ता कहीं ले जाता नहीं। तुम तक पहुंचाता नहीं। फासला उतना है और अब तो अंधेरा भी उतरने लगा। उस रानी ने कहा पागल लड़की तुझे शायद पता नहीं, दुनिया में कोई रास्ता किसी को कहीं नहीं पहुंचाता।

    सुबह जन्म के सूरज के साथ आदमी जहां अपने को पाता है मृत्यु की संध्या वहीं पाता है फासले उतने ही रहते हैं। फासले उतने ही रहेंगे। दौड़ने से पूरे नहीं होते। इसका आबजरवेशन चाहिए इसका निरीक्षण चाहिए कि हम आंख खोल कर चारों तरह देखें। आंख खोल कर जो देखेगा वह आदमी धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता। लेकिन जिनको हम धार्मिक जानते हैं वे तो आंख बंद कर के बैठ जाते हैं।

    आंख बंद करने में धर्म नहीं आंख ठीक से पूरी खोलने में धर्म है। आंख बंद करना एक तरह की मौत है। आंख बंद करना एक तरह की सुसाइड है, आत्म हत्या है। क्योंकि जो आंख बंद करता है वह तथ्यों के जगत के टूट जाता है और उन्हीं तथ्यों के निरीक्षण में छिपा है सत्य। उसी में जो सब तरफ फैला है। उसी में देखना है ठीक से उसमें हम ठीक से नहीं देख पाते इसलिए अर्थ मालूम होता है। ठीक से देख पाएं अर्थ विलीन हो जाता है।

     - ओशो 

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