Saturday, March 15.
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    कोई मनुष्य अपवाद नहीं है - ओशो

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    कोई मनुष्य अपवाद नहीं है - ओशो 

    एक युवक अपने गुरुकुल से वापस लौटा। जब वह गुरु से विदा होता था। उसने गुरु के पैर पड़े और उसकी आंखों से आंसू गिर पड़े गुरु के चरणों पर। गुरु ने कहा रोते हो क्या बात है? उसने कहा रोऊ न तो क्या करूं? मेरे सारे मित्र आज विदाई के क्षण में कुछ न कुछ भेंट करते हैं आपको मेरे पास लेकिन सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं। तो मैं रोता हूं और एक वचन चाहता हूं कि जब मेरे पास कुछ हो तो उसे स्वीकार कर लेना। बाद में कभी जब मैं आऊं तो मुझे इंकार न हो, इसका वचन दें तो ही मैं जाऊंगा। मैं हूं बहुत दरिद्र, मां और पिता भी मेरे नहीं हैं। आपने ही मुझे शिक्षा दी और भोजन भी दिया और वस्त्र भी दिए और आश्रय भी। मेरे पास कुछ भी नहीं देने को सब कुछ आपका ही है, जो मैं हूं। तो किसी दिन अगर मैं कुछ ले आऊं तो वह स्वीकृत होगा यह वचन दे दें।।

    गुरु ने बहुत कहा आंसुओं से बड़ी और कोई भेंट नहीं और प्रेम से बड़ा कोई सम्मान नहीं। लेकिन फिर भी तू नहीं मानता तो तेरी मर्जी मेरे द्वार तेरे लिए हर चीज के लिए खुलें हैं, तू कभी भी आ।

    वह युवक वहां से चला देश की राजधानी में पहुंचा उसी संध्या अपने एक मित्र के घर मेहमान हुआ। रात उसे करवटें बदलते देख कर उसके मित्र ने पूछा बेचैन मालूम होते हो बहुत क्या बात है? उसने कहा बेचैनी एक ही है। जिस गुरु के पास बहुत कुछ पाया उसे मैं भेंट भी न कर सका कुछ भी भेंट न कर सका उसके मित्र ने पूछा क्या भेंट करना चाहते हो? उस युवक ने कहा कि अगर पांच स्वर्ण मुद्राएं भी मुझे मिल जाएं लेकिन कहां मिलेंगी मैंने तो इकट्ठी पांच मुद्राएं देखी भी नहीं। तो मैं गुरु के चरणों में रख आता। उसके मित्र ने कहा तुम निश्चित सो जाओ सुबह थोड़े जल्दी उठ आना। इस देश का जो राजा है उसका नियम है कि पहले भिक्षु, पहला याचक उसके द्वार पर जो चला जाता है वह जो भी मांग लेता है वह दे देता है। तुम पांच स्वर्ण मुद्राएं मांग लेना। जल्दी चले जाना और घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मुश्किल से कभी कोई याचक जाता होगा।

    वह निश्चितता से सो गया और सुबह बहुत जल्दी राजा के द्वार पर पहुंच गया। कोई वहां न था। थोड़ी देर बाद राजा अपनी बगिया में घूमने को आया। तो वह हाथ जोड़ कर उसने कहा कि मैं पहला याचक हूं जो मैं मांगूंगा दे सकेंगे आप? राजा ने कहा कि आज के ही नहीं सदा के तुम पहले याचक हो क्योंकि आज तक जब से मैंने यह नियम लिया कोई नहीं आया। तो जो तुम मांगोगे मैं दे दूंगा। जो तुम मांगोगे।

    जैसे ही राजा ने यह कहा जो तुम मांगोगे। पांच स्वर्ण अशर्फियों का ख्याल एकदम खिसक गया और पांच हजार अशर्फियों का ख्याल आ गया। गणित सीखा था उसने भी आप थोड़े ही गणित जानते हैं, मैं ही थोड़े ही, वह भी गणित जानता था। पांच हट गए और शून्य पर शून्य लग गए। पांच हजार, उसने सोचा जब राजा कहता है जो मांगोगे तो पागल हूं जो मैं पांच मागूं पांच हजार क्यों नहीं। और फिर उसे लगा पागल हूं जो मैं पांच हजार ही मागू, पांच लाख क्यों नहीं? या कि पांच करोड़ या कि पांच अरब या कि खरब और फिर बहुत ही शीघ्र क्षणों में संख्याएं लंबी हो गईं। और अंतिम संख्या आ गई जो उसे मालूम थी और तब उसका हृदय धक से रह गया कि मैंने और गणित क्यों न सीख ली?

    राजा सामने ही खड़ा था। उसने कहा प्रतीत होता है तुम निश्चय कर के नहीं आए तो तुम निश्चय कर लो, मैं बगिया का एक चक्कर लगा आऊ। युवक को राहत मिली, उसने कहा बड़ी कृपा है आपकी। मैं थोड़ा सोच लूं। लेकिन सोचने की तो अंतिम सीमा आ गई थी। संख्याएं चूक गईं थीं। क्या सोचे क्या करे और बहुत पीड़ा मालूम होने लगी। राजा के पदचाप सुनाई पड़ने लगे। वह वापस लौटता है। उसके पदचाप बढ़ते चले जाते हैं और वह घबड़ाया जा रहा है और मरा जा रहा है।

    पांच स्वर्ण अशर्फियां बहुत पहले छूट गईं। गुरु बहुत न मालूम कहां खो गया। देने लेने की बात न रही। भेंट का कोई सवाल न था। सवाल था एक राजा कहता है जो मांगोगे दे दूंगा। तो पीड़ा मन को सताने लगी इस बात की खुशी नहीं की बहुत कुछ मिल जाएगा। इस बात का दुख कि पता नहीं कितना पीछे छूट जाएगा? मांग तो लूंगा यह लेकिन पता नहीं कितना पीछे छूट जाएगा और यह अवसर जीवन में दुबारा आए न आए और डर है कि न आएगा। क्योंकि राजा इस भेंट को दे कर सचेत हो जाएगा और शायद वापस ले ले अपने नियम को। सोचा होगा एक गरीब सा लड़का दस पचास रुपये मांगेगा। कोई स्कालरशीप की बात कहेगा या कुछ और। राजा करीब आने लगा तभी उसके सारे प्राण जैसे इकट्ठे हो गए। और उसे ख्याल आया मैं गलती में हूं संख्या छोड़ दूं। मैं सीधा मांग लूं कि जो कुछ तुम्हारे पास है सब मुझे दे दो। संख्या की उलझन गड़बड़ है। पीछे पछतावा होगा। सब दे दो जो तुम्हारे पास है। हां, दो वस्त्र छोड़ दूं। जो वह पहने है पहने चला जाए।

    बाहर निकल जाओ दो वस्त्र पहने हुए। दया है मेरी कि दो वस्त्र छोड़ता हूं। ऐसे मन तो छोड़ने का नहीं होता। दो वस्त्र भी कौन छोड़ना चाहता है? राजा सामने आया तो वह निर्णित था। उसने कहा फिर से कह दें कि जो मैं मांगूंगा देंगे। राजा ने कहा- कहा मैंने। तुम चिंता क्यों करते हो? बोलो उस युवक ने कहा तब जो आप वस्त्र पहने उन्हें पहने बाहर निकल जाएं। और जो आपका है सब मेरा हुआ।

    सोचा था राजा घबड़ा आएगा। पता नहीं हृदय का दौरा आ जाए हार्ट अटैक हो जाए या क्या हो जाए लेकिन राजा घबड़ाया नहीं। बात उल्टी हो गई। घबड़ाया युवक ही। क्योंकि राजा ने आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा कि हे परमात्मा जिस आदमी की मैं प्रतीक्षा करता था वह आ गया। और राजा ने कहा मेरे बेटे, दो वस्त्र छोड़ने में तुझे बहुत कष्ट होगा। वह भी मैं छोड़े जाता हूं। मैं नग्न ही इस द्वार के बाहर निकल जाता हूं। जिसमें कि कभी तुझे पछतावा न हो। और मेरे प्रति क्रोध न आए। छोड़ना बहुत कठिन होता है। राजा ने कहा दो वस्त्र भी छोड़ना बहुत कठिन होता है और तेरी उम्र में बहुत कठिन है। वस्त्र उतारने लगा राजा। युवक बोला- ठहरो। एक चक्कर और बगीचे का लगा आएं। मैं एक बार और सोच लूं। क्योंकि मैं घबड़ा आया हूं। मैं अबोध हूं मेरा कोई अनुभव नहीं है और आपकी छोड़ने की इतनी राजी, इतनी मर्जी, इतनी स्वेच्छा, इतना आनंद। तो मैं डर गया। क्योंकि जो इतना बड़ा राज्य इतनी खुशी से छोड़ कर भगवान को धन्यवाद दे कर जाता है निश्चित ही इस सब में उसने कुछ भी न पाया होगा। जब वह अपने जीवन को व्यर्थ कर लिया आपने और आप बूढ़े हो आए और आपके सारे केश शुभ्र हो गए और आपके चेहरे पर झुर्रियां आ गईं और जीवन आपसे विदा हो गया। और आप इस सबके बीच कुछ न पा सके तो क्षमा करें अभी मेरे पास जीवन है मैं वहां खोजं जहां कछ मिल सकता है। क्षमा करें एक दफा और घूम आएं मैं सोच लूं। राजा ने कहा सोचोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। सोचने वाले हमेशा मुश्किल में पड़ जाते हैं। और फिर जीवन पड़ा है सोचते रहना मैंने भी तो जीवन भर सोचा तब जाना। रुको जल्दी क्या है? जल्दी हो तो मुझे होनी चाहिए। संभालो इसे जल्दी मैं जाऊं।

    लेकिन युवक राजी नहीं हुआ और राजा को दूसरा चक्कर लगाने जाना पड़ा। और जैसा कि राजा को ज्ञात था वही हुआ। लौट कर युवक वहां नहीं था। वह अपनी पांच स्वर्ण मुद्राएं भी बेचारा छोड़ गया। इसे मैं कहता हूं आबजरवेशन, इसे मैं कहता हूं निरीक्षण। उस युवक ने कुछ देखा, निरीक्षण किया। उसके पास आंख थी। वह राजा के आर पार देख गया। राजा की सारी संपत्ति के आर पार देख गया। उसे दिखाई पड़ गया।

    एक आदमी के लिए जो व्यर्थ हो गया वह हर एक के लिए व्यर्थ है। आदमी और आदमी में भेद नहीं। मन और मन में अंतर नहीं। और एक आदमी सब आदमी की कथा है। लेकिन हम सब इस भ्रम में होते हैं कि मैं हूं एक्सेप्शन। मैं हूं अपवाद। मैं बात ही और हूं बाकी सब और होंगे। इसलिए हर आदमी यह सोच कर मैं अपवाद हूं, सोचता है निरीक्षण करने की क्या जरूरत है? मैं जीऊं अपने ढंग से। नहीं कोई मनुष्य अपवाद नहीं है।

     - ओशो 

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