किस मार्ग से यह दिखाई पड़ेगा, कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है - ओशो
किस मार्ग से यह दिखाई पड़ेगा, कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है - ओशो
जो भी बाहर है वह भीतर न जा सकेगा। वह डायमेंशन अलग है वह आयाम अलग है। जो बाहर है वह भीतर नहीं जा सकेगा। बाहर का बाहर रह जाएगा। भीतर हम खाली के खाली रह जाएंगे। और उसी भीतर के खालीपन को भरने के लिए दौड़े थे। इकट्ठा किया था यह सब। इस इकट्ठा करने में जीवन तो व्यतीत होगा लेकिन उपलब्धि नहीं होती है, नहीं हो सकती है।भीतर को भरने का उपाय बाहर नहीं है। इस बोध का नाम धर्म है। इस समझ इस अंडरस्टैंडिंग का नाम धर्म है। न तो गीता पढ़ लेने का नाम और न बाइबिल पढ़ लेने का नाम और न टीका लगा लेने का नाम और न मंदिर चले जाने का नाम और न इस तरह के वस्त्र या उस तरह के वस्त्र पहन लेने का नाम धर्म है। यह सब धोखे की बातें हैं जिनमें हम धार्मिक होने का मजा ले लेते हैं बिना धार्मिक हुए।
सस्ते उपाय हमने खोज लिए हैं धार्मिक होने के भी। सस्ते दो दो पैसे के उपाय। एक आदमी चार पैसे की माला खरीद लाए और उस पर उंगलियां फिराता रहे तो वह धार्मिक हो जाता है। इस भांति सेल्फ डिसेप्शन खुद को हम धोखा दे लेते हैं हक धार्मिक हो गए हैं। धार्मिक होना एक आमूल क्रांति है और वह क्रांति इस बात से संबंधित है कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है यह दिखाई पड़ जाए। यह कैसे दिखाई पड़ेगा?
किस मार्ग से यह दिखाई पड़ जाएगा कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है। आबजरवेशन से, निरीक्षण से। बाहर के जीवन को और स्वयं को थोड़ा निरीक्षण करें थोड़ा देखें। निंदा न करें। निंदा न करें कि बाहर का जीवन पाप है और बुरा है, छोड़ना है इसे। जो निंदा करता है उसे अर्थ दिखाई पड़ रहा है। निंदा न करें। कंडेमनेशन का कोई मतलब नहीं
बाहर की दुनिया की, दुनिया की निंदा न करें कि यह पाप है और बुरा है। पाप और बुरा है तो भी अर्थ मौजूद है। नहीं बाहर के जीवन को बहुत निर्दोष चित्त से देखें। बहुत इनोसेंट आबजरवेशन चाहिए। देखें आंख खोल कर यह बाहर की जिंदगी है. क्या है यह? और इतना मैं दौडूं और इतना इकट्ठा कर लूं, क्या होगा? क्या हो रहा है दूसरों को?
अमेरिका में एक अरबपति कारनेगी मरा। तो उसके पास चार अरब रुपये थे मरते वक्त लेकिन बहुत उदास और दुखी था। उसकी जीवन कथा लिखने वाले लेखक ने उससे पूछा आप तो तृप्त होंगे अपने ही जीवन में अकेले अपने श्रम से चार अरब रुपये आपने खड़े किए। कारनेगी ने कहा तृप्त? मेरे इरादे दस अरब रुपये इकट्ठे करने के थे। मैं एक असफल आदमी हूं। क्या आप सोचते हैं कारनेगी को दस अरब रुपये मिल जाते तो सफल आदमी हो जाता। हम जानते हैं जिनको दस अरब मिलते हैं वे भी सफल नहीं मानते अपने को क्योंकि यदि वे सफल मान लें तो आगे की दौड़ बंद कर दें। लेकिन नहीं दस अरब के बाद भी दौड़ जारी रहती है। सफलता नहीं आई, नहीं तो दौड़ बंद हो जाती। सफलता आती तो दौड़ रुक जाती। कभी किसी की दौड़ रुकते देखी है। दस अरब मिल जाते कारनेगी को उसे पता भी नहीं चलता कि उसके सपने सौ अरब के कब हो गए? चुपचाप अंधेरे में सपने आगे बढ़ जाते हैं।
जितना हम पा लेते हैं उससे बहुत आगे हमारे सपने खड़े हो जाते हैं। आकाश के क्षितिज की भांति होरिजन की भांति दिखता है कि जमीन को छू रहा है। यही पास, यही सूरत के बाहर जमीन को छू रहा है आकाश चारों तरफ से, बढ़ें, बढ़े थोड़ा, तो पाएंगे वह आकाश भी हटता चला जा रहा है। सूरत बहुत पीछे छूट जाएगा और आकाश को जमीन छूने की जो रेखा है, वह उतनी ही दूर रहेगी जितनी तब थी, जब हम नहीं चले थे। कितना ही चल लें वह उतनी ही दूर रहेगी। असल में आकाश जमीन को कहीं छूता ही नहीं। नहीं तो फासला पूरा हो सकता था। चित्त की जो क्षितिज रेखा है आकांक्षा की, आशा की, वह भी कहीं पूर्ति को छूती नहीं। नहीं तो पूरी हो सकती थी।
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