जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती, फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो - ओशो
जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती, फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो - ओशो
एक ऐसी संपदा है मनुष्य के भीतर कि उसे पाए बिना न कभी कोई पूर्ति, पूर्णता, न कोई आनंद को उपलब्ध होता है। एक ऐसा सत्य है मनुष्य के भीतर, एक ऐसा राज्य, एक ऐसा साम्राज्य, एक ऐसा सौंदर्य, एक ऐसा आनंद और आलोक कि उसे पाए बिना हर आदमी दरिद्र है, दीन हीन है। दुखी और पीड़ित है। फिर चाहे वह बाहर की दुनिया में कुछ भी पा ले अगर भीतर के जगत में उसने कुछ नहीं पाया तो उसकी सारी संपदा का मूल्य दो कौड़ी से ज्यादा नहीं। और वह संपत्ति केवल प्रतीत होती है कि है। क्योंकि जो संपत्ति छिन सकती है वह संपत्ति नहीं है केवल विपत्ति है। और जो संपत्ति नहीं छिनी जा सकती वही संपत्ति है।क्या कोई ऐसी संपत्ति है मनुष्य के भीतर? क्या कोई ऐसा सत्य है? क्या कोई ऐसा लोक है मनुष्य की चेतना में? जहां वह दुख और पीड़ा के पार हो जाए। अंधकार और अज्ञान के बाहर, जान सके मृत्यु के अतीत, जान सके उसे जो अनंत है और असीम है। है, मनुष्य के भीतर है, सबके भीतर है लेकिन होना काफी नहीं है उस पर आंख पड़नी चाहिए। उसका दर्शन होना चाहिए। अगर मेरे घर में खजाने भी गड़े हों और मुझे पता न हो तो मैं भिखारी की तरह भटकूँगा, रोऊंगा, गिड़गिड़ाऊंगा, दूसरों के द्वारों पर भीख मांगूंगा मेरे घर में गड़े हुए खजाने किसी अर्थ के न होंगे। वे अर्थवान हो सकते हैं तभी जब मैं उन्हें जान लूं, पहचान लूं।
एक बहुत बड़े महानगर में एक भिक्षु मर गया था। वह जिस जमीन पर तीस वर्षों से भीख मांगता रहा बैठ कर, जहां उसने अपने गंदे चीथड़े फैला रखे थे। और तीस वर्षों की गंदगी फैला रखी थी। वह मर गया तो पड़ोस के लोगो ने लाश को तो फिंकवा दिया और चूंकि उस भिखारी ने तीस वर्षों तक गंदगी की थी उस जमीन पर, उन्होंने सोचा इसे खोद कर जरा इसकी जमीन साफ करवा दें। वे हैरान रह गए जहां उन्होंने खोदा वहां खजाने गड़े थे। और वह भिखारी उन्हीं के ऊपर बैठ कर जीवन भर भिक्षा का पात्र फैलाए बैठा रहा और भीख मांगता रहा।
क्या अर्थ था उस खजाने का जो नीचे गड़ा था? कोई भी नहीं, वह न होने के बराबर था। वह भिखारी और हम में बहुत भेद नहीं। जिस जमीन पर हम खड़े हैं वहीं बहुत कुछ गड़ा है। जहां हम हैं वहां बहुत कुछ है। ऐसे खजाने हैं जिन्हें पा कर आदमी परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। ऐसा सौंदर्य है, ऐसा सत्य है, ऐसा संगीत है कि जिसमें डूब कर जीवन का अर्थ उपलब्ध हो जाता है। लेकिन उस तरफ आंख उठनी चाहिए। उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दिखाई पड़ना चाहिए। अगर वह दिखाई नहीं पड़ता तो हम तो भिखमंगे भीख मांगे चले जाएंगे। और हम भीख मांगते ही समाप्त भी हो सकते हैं।
लेकिन उस तरफ आंख तभी उठ सकती है जब बाहर की तरफ से आंख का धोखा टूट जाए। उसके पहले उसकी तरफ आंख नहीं उठ सकती। कौन सी चीज है जो रोके हुए है, उस तरफ आंख उठने से? कौन सी बात है जो अटकाए हुए है? एक बात और केवल एक ही बात और वह यह कि शायद यह आशा कि बाहर मैं कुछ पा लूं, संपत्ति, शक्ति, पद, वैभाव, कुछ पा लूं बाहर तो तृप्ति हो जाएगी मेरी।
यह आशा और यह भ्रम, भीतर आंख नहीं उठने देती। चौबीस घंटे, चौबीस घंटे आंख अटकी रहती है, कहीं बाहर। फिर यह आंख बाहर भटकते-भटकते, परेशान हो जाती है, थक जाती है, बुढ़ापा आ जाता है तो हम देखते हैं बूढ़े आदमियों को मंदिरों में जाते, संन्यासियों की बातें सुनते शास्त्र पढ़ते। थक जाती है आंख, बाहर से ऊब जाती है, परेशान हो जाती है तो फिर हम सोचते हैं अब धर्म की शरण क्योंकि मौत आती है करीब और वह जीवन तो हमने गंवा दिया।
लेकिन तब भी हम बाहर ही खोजते हैं। जीवन भर की गलत आदत पीछा नहीं छोड़ती। तब भी हम किसी मंदिर में खोजते हैं जो बाहर है। और किसी गुरु की चरणों में खोजते हैं वह भी बाहर है। और किसी शास्त्र में खोजते हैं वह भी बाहर है। और हिमालय पर चले जाएं और संन्यासी हो जाएं वह सब होना बाहर है। वह जीवन भर की जो गलत आदत थी बाहर खोजने की यद्दपी यह दिखाई पड़ गया कि बाहर नहीं मिलता लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर भी बाहर ही खोजते हैं। पहला भ्रम टूट जाता है तो दूसरा भ्रम उसकी जगह खडा हो जाता है।
सवाल यह नहीं है कि बाहर आप धन खोजते हैं अगर आप धर्म भी बाहर खोजते हैं तो बात वही है कोई फर्क न हुआ सवाल यह नहीं है कि बाहर आप शक्ति खोजते हैं। पद खोजते हैं, राज्य खोजते हैं। अगर ईश्वर को भी बाहर खोजते हैं कोई फर्क न हुआ, बात वहीं की वहीं है। जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती। फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो।
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