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    बाहर हम कुछ भी इकट्ठा करने में समर्थ हो जाएं भीतर हम खाली ही बने रहेंगे - ओशो

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    बाहर हम कुछ भी इकट्ठा करने में समर्थ हो जाएं भीतर हम खाली ही बने रहेंगे - ओशो 

    एक गांव में एक वृद्ध दंपति था। पति था और पत्नी थी। और दोनों न तो भीख मांगते और न ही कोई बड़ा व्यवसाय करते थे। लकड़ियां काट लाते थे जंगल से। बेच देते, जो पैसा आ जाता संध्या तक, जो थोड़ा रूखा सूखा खाने को मिल जाता खा लेते और जो बच जाता वह संध्या बांट देते। रात्रि फिर दरिद्र हो कर सो जाते। सुबह फिर वही लकड़ी काट लाते।

    एक दिन वर्षा थी, दूसरे दिन भी वर्षा और तीसरे दिन भी। अचानक वर्षा आ गई थी। तीन चार दिन उन्हें भूखे ही रह जाना पड़ा और चौथे दिन जब सूरज निकला और धूप निकली तो वे जंगल गए। चार दिन के भूखे बूढ़े कमजोर बामुश्किल उन्होंने लकड़ियां काटी और उन लकड़ियों को काट कर उनकी मौलियां बना कर लौटे। पति आगे था पत्नी थोड़े पीछे थी। रास्ते पर देखा उसने कि एक थैली पड़ी है। कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी हैं सोने की कुछ थैली के भीतर हैं। उसके मन को ख्याल आया पति को ख्याल आया मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया मैंने तो धन पर विजय पा ली। मैंने तो त्याग कर दिया है पूरा लेकिन पत्नी का क्या भरोसा?

    पतियों को कभी भी पत्नियों पर कोई भरोसा नहीं है उसको भी नहीं था। सोचा कहीं उसका मन न डोल जाए, कहीं उसके मन में यह ख्याल न आ जाए, चार दिन की भूख परेशानी, उठा ले, व्यर्थ पाप लगेगा उसके मन को। कमजोर होती हैं स्त्रियां सोचा ऐसा उसने। ऐसा अपने आपको मजबूत सोचने के लिए सुविधा होती है दूसरे को कमजोर सोच लेना। तो उसने जल्दी से उस अशर्फी और थैली को गड्डे में सरका कर मिट्टी डाल दी। पीछे उसकी पत्नी भी आ गई जब वह मिट्टी डाल ही रहा था। उसकी पत्नी ने पूछा क्या करते हैं? सत्य बोलने का नियम था उसका मुश्किल में पड़ गया।

    जो भी नियम ले लेते हैं सत्य बोलने का वे मुश्किल में पड़ ही जाते हैं। क्योंकि सत्य सहज निकले वह बात दूसरी है और नियम से निकले वह बात बिलकुल दूसरी है। तो कठिनाई खड़ी हो गई। सच बोलता है तो जो बात छिपानी चाही थी वह जाहिर होती, झूठ बोल नहीं सकता इसलिए मजबूरी में उसे कहना ही पड़ा कि मुझे क्षमा करो, अपने मन में कोई वासना मत लाना। बहुत बहुमूल्य अशर्फियों वाली थैली यहां पड़ी थी। सोने की अशर्फियां थीं। मैंने सोचा मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली लेकिन तुम्हारा मन कहीं डोल न जाए। इसलिए मैंने उन्हें हटा कर मिट्टी से ढंक दिया ताकि तुम देख न पाओ। वह पत्नी हंसने लगी और उसने कहा तुम्हें सोना अभी दिखाई पड़ता है। और तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म भी नहीं आती!

    यह जो पति है यह वही का वही है इसने सोना छोड़ा है लेकिन सोने से इसका अर्थ नहीं गया। इसे अभी सोना मिट्टी नहीं हुआ। सोना ही है छोड़ा है इसने लेकिन छोड़ने से सोना मिट्टी थोड़े ही जाता है। जानने से, छोड़ने से नहीं, जागने से, छोड़ने से नहीं, बोध के जगने से सोना जरूर मिट्टी हो जाता है। और सोना मिट्टी हो जाए तो न तो उसे पकड़ने की दौड़ रह जाती है और न छोड़ने की। सोना अपनी जगह रह जाता है, हम अपनी जगह रह जाते हैं। उससे हमारा नाता टूट जाता है।

    गृहस्थी का भी नाता है संन्यासी का भी नाता है रिलेशनशिप है वह चाहे पकड़ने की हो चाहे छोडने की हो। धार्मिक आदमी वह है बाहर के जगत से जिसका अर्थ विलीन हो गया। रिलेशनशिप टूट गई। संबंध टूट गया। यह तो बोध, अवेयरनेस, बाहर से हम इतना अपने को भरते हैं फिर भी भर नहीं पाते तो कहीं कोई भूल तो नहीं है? कहीं कुछ ऐसा तो नहीं है कि बाहर हम कुछ भी इकट्ठा करने में समर्थ हो जाएं भीतर हम खाली ही बने रहेंगे।

     - ओशो 

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