मनुष्य का मन कुछ ऐसा बना है कि भरता नहीं - ओशो
मनुष्य का मन कुछ ऐसा बना है कि भरता नहीं - ओशो
एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई थी, दोपहर आ गई थी और भीड़ बढ़ती चली गई थी। जो भी उस द्वार पर आ कर रुका था वह रुका ही रह गया था। वहां कोई बहुत अभूतपूर्व घटना घट गई थी। और जिसको भी राजधानी में खबर लगी वह भागा हुआ महल की तरफ चला आ रहा था। सांझ भी आ गई। करीब करीब सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। लाखों लोग इकट्ठे थे।उस द्वार पर सुबह-सुबह एक भिक्षु आया था। और उस भिक्षु ने उस राजा से कहा था, मुझे कुछ भिक्षा मिल सकेगी? राजा ने कहा था कोई कमी नहीं है, तुम जो चाहो मांग लो। उस भिखारी ने एक बड़ी अजीब शर्त रखी। उसने कहा कि मैं भिक्षा तभी लेता हूं जब मुझे यह आश्वासन मिल जाए, यह वचन मिल जाए कि मेरा पूरा भिक्षा पात्र भर दिया जाएगा। मैं अधूरा भिक्षा पात्र लेकर नहीं जाऊंगा। तो यदि यह वचन देते हों कि मेरा पूरा भिक्षा पात्र भर देंगे तो मैं भिक्षा लूं अन्यथा मैं किसी और द्वार पर चला जाऊं।
ऐसा शर्त वाला भिखारी कभी देखा नहीं गया था। और यह शर्त कोई इतनी बड़ी भी न थी कि राजा के द्वार से उसे लौटना पड़े। राजा हंसा और उसने कहा तुमने मुझे क्या समझ रखा है? क्या मैं तुम्हारे इस छोटे से भिक्षा पात्र को न भर सकूँगा? शायद तुम सोचते हो कि मैं धन धान्य में कुछ कम हूँ? और एक भिखारी का भिक्षा पात्र भी न भर सकूँगा।
उसने अपने वजीरों से कहा कि जाओ और अन्न के दानों से नहीं बल्कि हीरे मोतियों से इसके भिक्षा पात्र को भर दो। उसने कहा शर्त मुझे स्वीकार है। राजा हंसा था यह कह कर लेकिन भिखारी भी हंसा और उसने कहा कि एक बार फिर सोच लें। क्योंकि न मालूम कितने लोगों ने यह शर्त स्वीकार की है और वे इसे पूरा नहीं कर पाए।
राजा ने कहा कि कैसे पागलपन की बातें करते हो वजीर से कहा समय मत खोओ, जाओ और उसके भिक्षा पात्र को बहुमूल्य पत्थरों से भर दो। वजीर बहुत से हीरे मोती ले कर आया। उस राजा के पास कोई कमी न थी हीरे मोतियों की। अकूत उसके खजाने थे और उस भिखारी के भिक्षा पात्र में डाले। लेकिन डालते ही भूल पता चल गई। भिक्षा पात्र में डाले गए मोती हीरे कहीं खो गए और पात्र खाली का खाली रहा। फिर और ला कर डाले गए फिर और ला कर डाले गए और वे जो अकूत खजाने थे वे खाली होने लगे। सुबह की दोपहर आ गई, भिक्षा पात्र खाली का खाली रहा।
राजा घबड़ाया, कठिनाई खड़ी हो गई थी। वचन दिया था लेकिन न मालूम कैसा था यह भिक्षा पात्र सांझ हो गई। राजा भी अड़ा हुआ था कि भर देगा उसे लेकिन राजा भी छोटा पड़ गया। भिक्षा पात्र बहुत बड़ा था। वह नहीं भरा, नहीं भरा। और सांझ आखिर राजा को उस भिक्षु के पैरों पर गिर जाना पड़ा और माफी मांग लेनी पड़ी। उसने कहा कि मुझे माफ कर दें, भूल हो गई।
लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं और यह उत्तर मिल जाएगा तो मैं समझूगा कि मैं माफ कर दिया गया। यह भिक्षा पात्र क्या है? यह कोई जादू है? यह क्या है रहस्य? यह क्या है मिस्टरी? छोटा सा पात्र है और भरता नहीं और मेरे खजाने खाली हो गए।
उस भिक्षु ने जो कहा, उसने कहा कि न तो कोई जादू है और न कोई रहस्य। मैं एक मरघट से निकलता था। एक आदमी की खोपड़ी पड़ी मिल गई। उससे ही मैंने यह भिक्षा पात्र बना लिया। और मैं खुद ही हैरान हो गया यह भरता नहीं है। सच्ची बात यह है आदमी की खोपड़ी कभी भी भरी नहीं है।
उस राजमहल के द्वार पर यह जो घटना घटी थी। कोई रहस्य नहीं है इसमें। कोई मिस्टरी नहीं है। हम सब जानते हैं कि हमारी खोपड़ी भारती नहीं। मनुष्य का मन कुछ ऐसा बना है कि भरता नहीं। और मनुष्य को, मन के भरने की जो दौड़ है, वही संसार है।
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