भय उसके जाने का होता है, मन जहाँ बंधा होता है - ओशो
भय उसके जाने का होता है, मन जहाँ बंधा होता है - ओशो
एक रात एक जंगल में दो साधु निकलते थे। वृद्ध साधु जैसे ही सांझ ढलने लगी और सूरज ढलने लगा। अपने युवा साथी से पूछा कोई खतरा तो नहीं है इस जंगल में कोई डर तो नहीं है। वह युवा संन्यासी हैरान हुआ आज तक ऐसी बात उसके वृद्ध गुरु ने कभी न पूछी थी। अंधेरे से अंधेरे, बीहड़ से बीहड़, निविड़ से निविड़, जंगलों में से वे निकले थे। लेकिन कभी उसने न पूछा था कि कोई भय तो नहीं, कोई फियर तो नहीं, कोई डर तो नहीं। संन्यासी को डर कैसा? वह थोड़ा चिंतित हुआ आज यह बात क्यों उठाई है मन में? क्या हो गया है? आज कुछ गड़बड़ जरूर है। आज कोई बात जरूर है।थोड़ी देर बाद वे एक कुएं के पास रुके हाथ मुंह धो लेने को। सूरज ढल गया था। वृद्ध ने अपनी झोली युवा को दी और कहा जरा संभाल कर रखना मैं हाथ मुंह धो लूं। तब उस युवक को ख्याल आया झोली में जरूर कछ होना चाहिए। शायद कछ है झोली में उसी का भय है। उसने झोली में हाथ डाला देखा एक सोने की ईंट है। उसने उस ईंट को तो फेंक दिया जंगल के रास्ते के किनारे। उतने ही वजन का एक पत्थर झोली के भीतर रख दिया।
फिर यात्रा फिर शुरू हो गई। गुरु आ गया और उसने जल्दी से अपनी झोली ले ली और वे फिर चलने लगे। थोड़ी ही देर बाद फिर गुरु ने कहा जंगल में कोई डर तो नहीं है रात घनी होती जाती है। रास्ता तुम्हारा परिचित है भटक तो न जाएंगे। जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? उस युवक ने कहा भयभीत न हों अब अब कोई भय नहीं मैं भय को पीछे फेंक आया हूं। उसने घबड़ा के झोली में हाथ डाला वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा था। वह वृद्ध हंसने लगा और उसने कहा कितने आश्चर्य की बात है। मुझे ख्याल था कि सोने की ईंट ही रखी है तो मैं संभाले चला जा रहा था। बार-बार टटोल के देख लेता था। मुझे क्या पता है कि भीतर पत्थर है?
पत्थर उसने फेंक दिया और वह बोला कि अब चलने की कोई जरूरत नहीं है अब यहीं सो जाएं। अब गांव फिर सुबह उठ कर चलेंगे। उस ईंट में अर्थ था तो मन वहां बंधा था। अब ईंट, पत्थर हो गई तो रात वहीं सो गए वे। फिर कोई भय न था फिर कोई चिंता न थी। फिर कोई विचार न था। फिर वह झोला एक तरफ पड़ा रहा और वह पत्थर भी एक तरफ पड़ा रहा।
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