धार्मिक होना एक आंतरिक घटना है - ओशो
धार्मिक होना एक आंतरिक घटना है - ओशो
धर्म से मेरा कोई संबंध हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन से नहीं है। ये धर्म हैं भी नहीं। अगर ये धर्म होते तो दुनिया धार्मिक हो गई होती। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है। और इस होने की वजह से ही वह धार्मिक नहीं है। धार्मिक होना कुछ बात ही और है। धार्मिक होना एक आंतरिक घति है। एक रिवोल्यूशन है जो चित्त में घटित हो जाती है। उसका कोई एफलिएशन से, कोई आगघ्नाइजेशन से, कोई संगठन, किसी मंदिर और चर्च से, कोई वास्ता नहीं है।धर्म का संबंध है, मनुष्य के मन से। अगर कोई मंदिर है, तो मनुष्य का मन है। और अगर कहीं कोई सत्य और परमात्मा है तो वहीं खोजा जाना है। जो किन्हीं और मंदिरों में खोजते हैं वे भटक जाते हैं। क्योंकि वे सब मंदिर बाहर होंगे और बाहर के मंदिर और बाहर के मकानों में कोई फर्क नहीं। भीतर है कोई, और वह भीतर जो मंदिर है, उसकी खोज उसी दिन शुरू होती है जिस दिन यह भ्रम टूट जाता है कि इस मन को भरने की दौड़ व्यर्थ है, यह दिखाई पड़ जाता है। जब तक हम इस मन को भरने की दौड़ में होते हैं तब तक न समय होता है और न फुरसत होती है। कि हम उसे खोजें जो भीतर है क्योंकि मन की इस दौड़ को भरने कि लिए हमें बाहर दौड़ना पड़ता है। भीतर जाने का अवकाश नहीं मिलता, समय नहीं मिलता, सुविधा नहीं मिलती।
मन को भरना है तो बाहर दौड़ना पड़ता है और परमात्मा को जानना है तो भीतर। जो बाहर दौड़ रहा है वह भीतर नहीं देख पाए इसमें कोई आश्चर्य नहीं। हम सब बाहर दौड़ रहें हैं। और हम सबका आज तक का भी अनुभव वही है, जो उस राजमहल के उस राजा को हुआ था। हममें से कौन कितना भर गया है? और क्या यह सीधा सा तर्क और सीधा सा अनुमान नहीं कि आज तक हम दौड़े हैं और भरे नहीं तो कल भी हम दौड़ेंगे तो भर कैसे जाएंगे? आज तक हम सब दौड़े हैं और खाली हैं। लेकिन कल की आशा दौड़ी चली जाती है कि कल भर जाएं शायद। और दौड़ें, और दौड़ें, कल शायद वह फूलफिलमेंट मिल जाए, वह पूर्णता मिल जाए जिसकी तलाश और खोज है। लेकिन जो दौड़ता है बाहर, वह उसे कभी न पा सकेगा। शायद मनुष्य के निर्माण के समय ही कोई बात हो गई जिसकी वजह से यह नहीं हो सकता।
मैंने एक बड़ी काल्पनिक कथा सुनी है। मैंने सुना है कि परमात्मा ने आदमी को बनाया और यह आपको पता है, आदमी को बनाने के बाद उसने फिर कुछ भी नहीं बनाया। आदमी को बना के वह घबड़ा गया होगा और उसने बनाने का अपना सारा काम बंद कर दिया होगा। और आदमी से शायद वह डर गया होगा उसकी आशा न थी कि ऐसा आदमी बन जाएगा और शायद, पुरानी कथा है, वह इतना डर गया अपने ही बनौ गए आदमी से कि उसने देवताओं से पूछा कि आज नहीं कल यह आदमी मुझे परेशान करने लगेगा। मुझे कोई छिपने की जगह बता दो जहां मैं छिप जाऊं और यह आदमी मुझे न खोज सके।
तो अलग-अलग सुझाव औ, बड़े प्रस्ताव औ, किसी ने कहा दूर हिमालय में, पहाड़ों में छिप जाओ। परमात्मा हंसा और उसने कहा कि जो आदमी है हिमालय इसके लिए बहुत दूर नहीं है। यह वहां पहुंच जाएगा। किसी ने कहा चांद तारों में छिप जाओ परमात्मा ने कहा थोड़ी बहुत देर छिपे रह सकते हैं। लेकिन यह आदमी जैसा मैंने बना लिया है, यह वहां पहुंच ही जाएगा। फिर किसी ने उससे कहा फिर एक ही रास्ता है, इसी आदमी के भीतर छिप जाओ। परमात्मा राजी हो गया। यह सुझाव बड़ा उचित और बड़ी समझदारी का था। क्योंकि आदमी और सब जगह ढूंढेगा शायद ही उसे ख्याल आए कि उसके भीतर भी कुछ ढूंढने को कुछ है।
कहानी तो काल्पनिक है लेकिन बात बड़ी सच है। आदमी ढूंढता है बाहर और जिसे पाना है, वह है उसके भीतर इसलिए जितनी खोज बढ़ती है, उतना ही खोता चला जाता है। उलटा ही होता है। खोज होती है ज्यादा और पाता है कि खो गया हूं।
No comments