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    धारणा- ओशो

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    धारणा- ओशो

    मेरे एक मित्र थे--बूढ़े आदमी थे, अब तो चल बसे--महात्मा भगवानदीन।
                 अनूठे व्यक्ति थे। एक महानगर में कुछ पैसे इकट्ठे करने गए थे--कहीं एक आश्रम बनाते थे। सीधे-साधे आदमी थे। बस एक अंडरवियर पहने रहते थे, कभी-कभी सर्दी इत्यादि में एक चादर भी डाल लेते थे। वह अंडरवियर पहने ही वे दुकानों पर गए। किसी ने चार आने दिए, किसी ने आठ आने दिए, किसी ने रुपया दिया। सांझ जब मुझे मिले, उन्होंने कहा, इतना बड़ा नगर है, कुल बीस रुपए इकट्ठे हुए!
                    मैंने कहा, आप पागल हो, यह कोई ढंग है? आपको महात्मा होना आता ही नहीं। मुझसे पूछा होता। यह जाने का ढंग ही नहीं। अब दो-चार दिन रुक जाओ, दो-चार दिन जाओ मत, लोगों को भूल जाने दो। उन्होंने कहा, क्यों फिर क्या होगा? मैंने कहा, देखेंगे।
                   चार दिन बीत जाने के बाद अखबार में मैंने खबर दिलवायी कि बड़े महात्मा गांव में आए हैं--महात्मा भगवानदीन। और चार-छह मित्रों को कहा कि जरा डुग्गी पीटो, उनकी खबर करो गांव में।
                    फिर पंद्रह-बीस मित्रों को इकट्ठा कर दिया, मैंने कहा, इनको साथ लेकर अब जाएं--उन्हीं दुकानों पर जाना जिनसे चार आने और आठ आने और बारह आने पाए थे।
                    वह उन्हीं दुकानों पर गए, वे लोग उठ-उठकर चरण छुएं कि महात्माजी आइए, बैठिए, बड़ी कृपा की। अखबार में पढ़ा कि आप आए हैं। और बीस-पच्चीस आदमियों की भीड़! जिसने चार आने दिए थे उसने पांच सौ रुपए दिए, जिसने आठ आने दिए थे उसने हजार रुपए दिए। जब वह सांझ को लौटे तो बीस रुपए नहीं, बीस हजार रुपए इकट्ठे करके लौटे।
                     मैंने पूछा, कहो कैसी रही! लोग प्रचार को देते हैं, विज्ञापन को देते हैं। लोग तुम्हें थोड़े ही देते हैं, कि तुम चले गए अपना अंडरवियर पहनकर! चार आने दे दिए, यही बहुत! तुमसे अंडरवियर नहीं छीन लिया उन लोगों ने, भले लोग हैं। नहीं तो धक्का मारकर निकालते अलग और अंडरवियर छीन लेते सो अलग।
                   मगर, वह कहने लगे, आश्चर्य की बात है,
    कि उन्हीं दुकानों पर गया और बुद्धुओं को यह भी न दिखायी पड़ा कि मैं पहले चार आने लेकर चला गया हूं!
                    देखता कौन है! वह चार आने तुम्हें थोड़े दिए थे, हटाने को दिए थे, कि जो भी हो, चलो हटो! फुर्सत किसको है? धारणा! जब धारणा हो मन में कि कोई महात्मा है तो फिर महात्मा दिखायी पड़ने लगता है। चोर हो तो चोर दिखायी पड़ने लगता है।
                   एक आदमी के घर बगीचे में काम करते वक्त उसकी खुर्पी खो गयी। तो उसने चारों तरफ देखा, एक पड़ोस का लड़का जा रहा था, बिलकुल चोर मालूम पड़ा, उसने कहा हो न हो यही शैतान खुर्पी ले गया। फिर दोत्तीन दिन उसने उसकी जांच-परख की, जहां भी दिखायी पड़े तब गौर से देखे, बिलकुल चोर मालूम पड़े। चाल से चोर, आंख से चोर, हर तरह से चोर। और तीसरे-चौथे दिन अपने बगीचे में काम करते वक्त एक झाड़ी में पड़ी हुई वह खुर्पी मिल गयी। अरे, उसने कहा, खुर्पी तो यहीं पड़ी है! फिर उस दिन उस लड़के को देखा, वह एकदम भला सज्जन मालूम पड़ने लगा। न उसने खुर्पी उठायी थी, न उसे कुछ पता है कि क्या हुआ, लेकिन धारणा।
                    जब तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी चोर, तो तुम्हें चोर दिखायी पड़ने लगेगा। जब तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी साधु, तुम्हें साधु दिखायी पड़ने लगेगा। ये सत्य को खोजने के ढंग नहीं। धारणा अगर पहले ही बना ली तो तुम तो असत्य में जीने की कसम खा लिए।

    -ओशो

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