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    दाग जब गज़ल कहता है तब वो प्रार्थना है - ओशो

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    दाग जब गज़ल कहता है तब वो प्रार्थना है - ओशो

                   मैंने सुना है, उर्दू के महाकवि दाग नमाज पढ़ रहे थे, कि कोई व्यक्ति उनसे मिलने आया और उन्हें नमाज में तल्लीन देखकर लौट गया। कुछ ही देर में दाग जब मुसल्ले पर से उठे तो उनके नौकर ने उस व्यक्ति के बारे में बताया। दाग ने कहा, भागकर जाओ और उसे बुला लाओ। जब वह व्यक्ति लौटकर आया तो दाग ने पूछा, आप आते ही लौट क्यों गए? उस आदमी ने कहा, क्योंकि आप नमाज पढ़ रहे थे। दाग ने कहा, बड़े मियां, नमाज ही तो पढ़ रहा था, गज़ल तो नहीं कह रहा था!
                   अब तुम फर्क समझते हो? दाग जो कह रहा है——नमाज ही पढ़ रहा था, गज़ल तो नहीं कह रहा था। जब दाग गज़ल कहता है तो वह एक भाव की दशा होती है। तब वह होता ही नहीं, गज़ल होती है। तब दाग मिट जाता है, गज़ल ही बचती है। प्रार्थना ही तो कर रहा था, उसने कहा, नमाज ही तो पढ़ रहा था। कोई खास बात कर रहा था?
                    एक कृत्य था। एक औपचारिक कृत्य था। करना चाहिए, कर रहा था। पांच बार मुसलमान को करना चाहिए तो कर रहा था। संयोग की बात है, मुसलमान घर में पैदा हुआ हूं। बचपन से सिखाया गया है, संस्कार है तो कर रहा था। इसमें ऐसे चले जाने की क्या बात थी? और मुझे टोक भी दिया होता बीच में तो क्या बना—बिगड़ा जा रहा था! जिंदगी तो हो गई करते—करते, मिलता तो कुछ है नहीं। तो खो भी क्या जाएगा?
                   लेकिन एक बात उसने बड़ी महत्त्वपूर्ण कही कि मैं गज़ल तो नहीं कह रहा था! हां, गज़ल कह रहा होऊं तो मुझे मत रोकना। गज़ल कह रहा होऊं तो फिर मुझे पता ही नहीं चलेगा कि तुम आए कि गए। नमाज पढ़ रहा था इसलिए तो पता भी चला कि कोई आया, कोई गया। शायद इसलिए जल्दी खत्म भी की होगी कि पता नहीं, कोई काम से आया हो, जरूरी काम से आया हो। इसीलिए तो नौकर को भगाया। हां, गज़ल कह रहा होता तो बात अलग थी।
                    दाग जब गज़ल कहता है तभी प्रार्थना है। जब वह नमाज पढ़ता है तब तो फिजूल का काम कर रहा है, न भी करे तो चलेगा। समय खो रहा है।
                   तुम्हारी प्रार्थना भी अभी नमाज है, गज़ल नहीं है। अभी तुम्हारे प्राणों का गीत नहीं है। एक कृत्य है, औपचारिक कृत्य है। हिंदू घर में पैदा हुए हो, सिखा दिया : ऐसे—ऐसे पढ़ना, ऐसे पूजा करना, ऐसे पानी चढ़ाओ, ऐसे फूल चढ़ाओ, ऐसे बेल—पत्ते तोड़ लाओ, घंटी बजाओ। मगर ये सब कृत्य हैं, यह तुम्हारी भाव की दशा नहीं है। तुम कर रहे हो कर्तव्यवश। तुम्हारे भीतर प्रेम नहीं उमगा है।
                  प्रार्थना की नहीं जाती। प्रार्थना प्रेम जैसी है : होती है, घटती है। प्रार्थना एक भाव की दशा है, कर्म की दशा नहीं है। और यहीं भूल हो रही है।
                   अगर तुमने समझा, मैंने प्रार्थना "की" तो पहले तो वह प्रार्थना झूठी हो गई। जो की जाती है वह झूठी हो जाती है। उमगनी चाहिए, होनी चाहिए, तुम्हारे भीतर से फलनी चाहिए, प्रकट होनी चाहिए।

    -ओशो

    नाम सुमिर मन बावरे

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