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    समझते हैं कि प्रार्थना कर रहे हैं - ओशो

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    समझते हैं कि प्रार्थना कर रहे हैं - ओशो

    जापान में एक बौद्ध भिक्षु था।
    सबसे पहले उसने ही चीनी भाषा से बुद्ध
    के वचन जापानी भाषा में अनुवाद किए।
    बड़ा काम था, विराट साहित्य था,
    उसको अनुवादित करना था।
    फकीर के पास, भिक्षु के पास कुछ भी न था।
    वह गांव—गांव गया, दस वर्ष उसने भिक्षा मांगी,
    तब कहीं दस हजार रुपये इकट्ठे हुए और
    ग्रंथ का काम शुरू होने की संभावना बनी।
    लेकिन जैसे ही दस हजार रुपये इकट्ठे हुए,
    जिस क्षेत्र में वह रहता था वहां अकाल पड़ गया।
    अकाल पड़ गया तो उसने शास्त्र के
    अनुवाद का काम रोक दिया।
    उसने वे दस हजार रुपये अकाल
    पीड़ितों को भेंट कर दिए।
    फिर भिक्षा मांगनी शुरू की,
    फिर दस वर्ष लग गए,
    दस हजार रुपये इकट्ठे हुए।
    तभी एक भूकंप आ गया।
    उसने वे दस हजार रुपये
    उस भूकंप में दान कर दिए।
    फिर भिक्षा मांगनी शुरू की।
    वह शास्त्रों का काम फिर रुक गया।
    जब उसने भिक्षा मांगनी शुरू की थी
    तब वह चालीस वर्ष का था।
    जब तीसरी बार भिक्षा पूरी हुई
    तो वह सत्तर वर्ष का था।
    फिर दस हजार रुपये इकट्ठे हुए,
    ग्रंथों का काम शुरू हुआ।
    मरते समय किसी ने उससे पूछा कि
    क्या इन ग्रंथों का यह पहला संस्करण है?
    तो उसने कहा, नहीं;
    यह तीसरा संस्करण है,
    दो संस्करण पहले निकल चुके हैं।
    वे लोग हैरान हुए!
    उन्होंने कहा.. .उसने ग्रंथ पर लिखवाया भी कि
    तीसरा संस्करण, थर्ड एडिशन……
    लोगों ने पूछा कि यह क्या है?
    पहले दो संस्करण कहां हैं?
    उसने कहा, एक अकाल में लग गया,
    एक भूकंप में।
    और वे दो संस्करण इस तीसरे से श्रेष्ठ थे
    , वे दिखाई नहीं पड़ते हैं।
    वे दिखाई नहीं पड़ते; वे श्रेष्ठ संस्करण थे।
    वे बहुत डिवाइन थे, बहुत दिव्य थे।
    हमको दिखाई पड़ेगा कि वे संस्करण हुए नहीं;
    लेकिन उसे दिखाई पड़ता है।
    जो प्रार्थना दिखाई पड़ती है वह असली नहीं है;
    जो बहुत हृदय की दशाओं में उत्पन्न होती है
    वही असली है।
    निश्चित हां, तीसरा संस्करण कोई कीमत का नहीं है,
    असली संस्करण वे दो थे।
    लेकिन अगर यह अंधा पंडित होता,
    तो वह दस हजार रुपये का
    पहला संस्करण निकालता
    और मानता कि यही ठीक है,
    दूसरे का भी निकालता,
    मानता यही ठीक है।
    लेकिन उसके पास अंतर्दृष्टि थी, प्रेम था।
    उसे पता था प्रार्थना क्या है!
    तो यह जो हम सामान्यत: प्रार्थना
    और पूजा समझते हैं, इसमें बड़ा धोखा है।
    आपका चित्त तो नहीं बदलता,
    कुछ बातें आप दोहरा कर निपट जाते हैं।
    एक काम को पूरा कर लेते हैं,
    एक रूटीन पूरी कर लेते हैं।
    फिर रोज—रोज उसे दोहराते रहते हैं
    और समझते हैं कि प्रार्थना कर रहे हैं।
    -जीवन-रहस्‍य-प्रवचन-04

    - ओशो

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