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    प्रेम - ओशो

    prem - osho

    प्रेम - ओशो

    प्रेम दूसरे की आंखों में अपने को देखना है।
    दूसरा कोई उपाय नहीं है।
    जब किसी की आंखें तुम्हारे लिए
    आतुरता से भरती हैं,
    कोई आंख तुम्हें ऐसे देखती है कि
    तुम पर सब कुछ न्योछावर कर दे,
    किसी आंख में तुम ऐसी झलक देखते हो कि
    तुम्हारे बिना उस आंख के भीतर छिपा हुआ
    जीवन एक वीरान हो जाएगा,
    तुम ही हरियाली हो, तुम ही हो वर्षा के मेघ;
    तुम्हारे बिना सब फूल सूख जाएंगे,
    तुम्हारे बिना बस रेगिस्तान रह जाएगा;
    जब किसी आंख में तुम अपने जीवन की
    ऐसी गरिमा को देखते हो,
    तब पहली बार तुम्हें पता चलता है कि
    तुम सार्थक हो।
    तुम कोई आकस्मिक संयोग नहीं हो इस पृथ्वी पर;
    तुम कोई दुर्घटना नहीं हो।
    तुम्हें पहली बार अर्थ का बोध होता है;
    तुम्हें पहली बार लगता है कि
    तुम इस विराट लीला में सार्थक हो,
    सप्रयोजन हो; इस विराट खेल में तुम्हारा भाग है;
    यह मंच तुम्हारे बिना अधूरी होगी;
    यहां तुम न होओगे तो कुछ कमी होगी;
    कम से कम एक हृदय तो तुम्हारे बिना
    रेगिस्तान रह जाएगा,
    कम से कम एक हृदय में तो
    तुम्हारे बिना सब काव्य खो जाएगा;
    फिर कोई वीणा न बजेगी।
    ऐसा एक व्यक्ति की आंखों में,
    उसके हृदय में झांक कर तुम्हें
    पहली बार तुम्हारे मूल्य का पता चलता है।
    अन्यथा तुम्हें कभी मूल्य का पता न चलेगा।

    - ओशो

    -ताओ उपनिषाद–(भाग–6) प्रवचन–108

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