बोध कि सब अभिनय है- ओशो
बोध कि सब अभिनय है- ओशो
जैन शास्त्रों में कथा है : नेमीनाथ का आगमन हुआ। वे कृष्ण के चचेरे भाई थे जैनों कि तीर्थकर। नेमीनाथ आये हैं, यमुना के उस पार ठहरे हैं। कृष्ण ने रुक्मणि को कहा है कि जाओ, सुस्वादु भोजन बनाओ और नेमीनाथ की सेवा में उपस्थित होओ। पर उन्होंने कहा कि नदी बहुत गहरी है, नदी बाढ़ पर है, पैदल पार करना संभव नहीं है। नदी इतनी बाढ़ पर है कि नाविक भी खतरा लेना चाहते नहीं। तो हम क्या करें? हम कैसे पार जायें?
तो कृष्ण ने एक बड़ी अच्छी बात कही। कृष्ण ने कहा कि तुम नदी से कहना कि अगर नेमीनाथ उपवासे हों तो नदी, राह दे दे। भरोसा तो न आया रुक्मणि को। मगर कृष्ण कहते हैं तो करके देख लेना ठीक है। आजकल की पत्नी होती तो कहती चलो जाओ भाड़ में! किसको बनाने चले हो! पुराने जमाने की कहानी है, रुक्मणि पति को ऐसा तो कह नहीं सकती। कहते होंगे तो कुछ ठीक ही कहते होंगे। कहते होंगे तो कुछ सार होगा। बिना किये तो कुछ कहा नहीं जा सकता।
भोजन बनाया, चली। शक है भीतर, संदेह बड़ा है-नदी कहीं रास्ता देती है! संदिग्ध मन से, लेकिन पूछा है कि अगर नेमीनाथ सदा के ही उपवासी हों… ‘सदा के उपवासी’! इस पर भी भरोसा नहीं आता! सदा के उपवासी तो कैसे हो सकते हैं! कम- से -कम बचपन में मां का दूध तो पिया ही होगा! और अगर सदा के ही उपवासी हैं तो आज भोजन इनको कौन-सी जरूरत पढ़ रही है! ये सब बातें बेबूझ मालूम पड़ती हैं, मगर अब कृष्ण कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे।
और जब नदी ने रास्ता दे दिया तब तो रुक्मणि को अपनी आखों पर भी भरोसा नहीं आया। रुक्मणि और उसकी साथिनें नदी पार कर गई। नेमीनाथ को भोजन कराया। भोजन कराया तो बहुत हैरान हुई, बहुत भोजन बनाकर लाई थी, कि एक नहीं पचास आदमियों का पेट भर जाता। शाही स्वागत था। लेकिन नेमीनाथ तो सब अकेले ही उड़ा गये। तब तो और भी शक होने लगा कि ये जीवन- भर के उपवासी कैसे! और तब याद आया कि बड़ी झंझट हो गई, जल्दी में हमने कृष्ण से यह तो पूछा ही नहीं कि लौटते वक्त क्या करेंगे! जाते वक्त चलो कि नेमीनाथ जीवन- भर के उपवासी हैं… लौटते वक्त भोजन, कराके लौट रहे हैं, अब किस मुंह से गंगा से या यमुना से कि अब राह दे दो! अब क्या करें? किकर्तव्यतिमूढ वे नदी के तट पर खड़ी हैं।
नेमीनाथ हंसने लगे। उन्होंने पूछा : क्या अड़चन है? उन्होंने कहा : अड़चन यह है कि हम पूछकर आये थे। कृष्ण ने जो उत्तर दिया था, वह काम कर गया मगर अब कैसे काम करेगा?
नेमीनाथ ने कहा : फिक्र छोड़ो! तुम तो वही कहो कि अगर नेमीनाथ जीवन भर के, जन्म भर के उपवासी हों तो नदी राह दे दे। उन्होंने कहा : महाराज, कृष्ण की बात पर भरोसा नहीं आ रहा था, आपकी बात पर तो अब बिलकुल भी नहीं आ सकता।
नेमीनाथ ने कहा : भरोसे या न भरोसे का सवाल नहीं। जो मैं कहता हूं वह करो। नदी भलीभांति जानती है कि नेमीनाथ उपवासे हैं।
और रुक्मणि को कोई राह नहीं थी तो कहना पड़ा। झिझकते – झिझकते कहा कि हे नदी, राह दे दे, यदि नेमीनाथ जीवन भर के उपवासी हों।
और रुक्मणि को कोई राह नहीं थी तो कहना पड़ा। झिझकते – झिझकते कहा कि हे नदी, राह दे दे, यदि नेमीनाथ जीवन भर के उपवासी हों।
और नदी ने राह दे दी। कहानी बड़ी प्रीतिकर है, कोई ऐतिहासिक नहीं हो सकती। आदमियों को नहीं दिखाई पड़ता, नदियों को क्या खाक दिखाई पड़ेगा! पर बात प्रतीक की है, बात मूल्य की है।
नेमीनाथ के जीवन भर के उपवास का अर्थ केवल इतना ही है कि सब अभिनय है, भीतर साक्षी है। भोजन किया तो, भूखे रहे तो, दोनों हालत में भीतर साक्षी है। साक्षी क्षण भर को नहीं छूटता है। शाश्वत, सतत साक्षी में थिरता हो गई है। यह ध्यान की धूनी है। फिर खेलो!
भीतर तो एक बोध बना रहे कि सब अभिनय है। फिर कोई चिंता नहीं। फिर इस संसार में रहो। और रहने को जाओगे भी कहां? सब जगह संसार है।
भोग का अंत जीवन का अंत नहीं है। लेकिन भोग से जाग जाना, भोग बाहर रह जाये और तुम्हारे भीतर एक जागरण हो, तुम साक्षी हो जाओ और भोग एक अभिनय हो जाए। भोजन भी करोगे, फिर रात सोओगे भी; सोओगे और सोओगे भी नहीं, भोजन करोगे और भोजन नहीं भी करोगे।
No comments