अहंकार - ओशो
अहंकार - ओशो
मेरे पास लोग आते हैं।सिक्ख आते हैं, वे कहते हैं, गुरु-ग्रंथ-साहिब पर आप बोलें, तो हमारी समझ में आयेगा। मुसलमान आते हैं, वे कहते हैं, आप बाइबिल, गीता पर बोलते हैं, आप कुरान पर बोलें तब हमारी समझ में आयेगा। जैसे समझ में तो उन्हें पहले ही आ गया है। मैं वे जो मानते हैं उसकी स्वीकृति दे दूं, तो वे प्रसन्न होंगे, फैल जायेंगे। वे जो मानते हैं उसको इंकार कर दूं तो वे सिकुड़ जायेंगे, नाराज हो जायेंगे। जैसे सत्य तो तुम्हें मिल ही चुका है। पाने को कुछ भी नहीं है। सिर्फ सहमति जुटानी है। इससे ज्यादा मूढ़ कोई भावदशा नहीं है।
तुम्हें सत्य मिल नहीं गया है। मिल ही गया होता तो बात ही खतम थी। फिर मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं है। फिर कुरान, बाइबिल, गीता में भी खोजने की कोई जरूरत नहीं है। सत्य तुम्हें मिल नहीं गया है। लेकिन तुम चाहते हो कि सत्य वैसा ही हो, जैसा तुम मानते हो। क्यों? क्योंकि तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलेगी। और अहंकार बड़े खेल खेलता है। तुम अगर हिंदू हो तो तुम कहते हो गीता से महान कोई किताब नहीं है। क्यों? सच में गीता महान किताब है? शायद तुमने पढ़ी भी न हो पूरी। लेकिन गीता की महानता के पीछे तुम अपनी महानता सिद्ध करना चाह रहे हो। कि मैं हिंदू हूं, मेरी किताब महान है।
तुम किसी को गुरु मानते हो, कोई उसकी निंदा कर दे, लड़ने को खड़े हो जाते हो। क्यों? और सारे गुरु यह कह रहे हैं कि निंदा और प्रशंसा को समान समझना। क्यों तुम लड़ने खड़े हो जाते हो? क्योंकि तुम्हारा गुरु अगर छोटा हो गया तो तुम भी उसी अनुपात में छोटे हो गये। छोटे गुरु के छोटे शिष्य; बड़े गुरु के बड़े शिष्य। अगर तुम्हारा गुरु दुनिया का सबसे बड़ा गुरु है तो तुम दुनिया के सबसे बड़े शिष्य। तुम अपने अहंकार को पोस रहे हो। तुम्हारा धर्म, तुम्हारी किताब, तुम्हारा मंदिर, तुम्हारा गुरु, सबको तुमने आभूषण बनाया है अपने अहंकार को बड़ा करने के लिए। और वही बाधा है।
दीया तले अंधेरा, ( सूफी कथा)
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