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    जिस समाज में स्त्रियां घरों में बंद हो जाती हैं वह समाज कठोर हो जाता है- ओशो

    जिस समाज में स्त्रियां घरों में बंद हो जाती हैं वह समाज कठोर हो जाता है- ओशो

    जिस समाज में स्त्रियां घरों में बंद हो जाती हैं वह समाज कठोर हो जाता है- ओशो 

    स्त्री को बंद कर
    रखा है घरों में,
    कठघरों में।
    और जब स्त्रियाँ
    कठघरों में बंद हो जाती हैं
    और समाज केवल पुरुषों
    का रह जाता है तो
    समाज में एक तरह
    की कठोरता हो जाती है-
    एक तरह की पुरुषता।
    क्योंकि पुरुष पुरुष है,
    कठोर है। तब समाज में
    एक तरह की सौम्यता खो जाती है।
    तुमने देखा,
    दस पुरुष बैठे हों
    और एक स्त्री आ जाये,
    उसके आते ही एक
    सौम्यता आ जाती है।
    उसकी मौजूदगी एक
    तरलता ले आती है।
    उसकी मौजूदगी से
    ही अगर गाली -गलौच
    चल रही थी तो बंद हो जाती है।
    अगर लोग कुछ भी
    ऊल-जलुल बातें कर रहे थे
    तो बदल देते हैं।
    उसकी मौजूदगी एक
    रूपांतरण लाती है।
    जिस समाज में स्त्रियां
    घरों में बंद हो जाती हैं
    वह समाज कठोर हो
    जाता है, जंगली हो जाता है।
    और इस देश में स्त्रियां
    घरों में बंद हैं।
    उन्हें घरों के बाहर लाना है।
    उन्हें समाज में प्रवेश दिलाना है।
    उन्हें उनका अधिकार
    मिलना चाहिए।
    उन्हें उनकी समानता
    मिलनी चाहिए।
    उनका समाज में वापिस
    लौट आना पूरे समाज
    के लिये सौम्य हो जाने
    के लिये बिलकुल जरूरी है।
    इसी लिए यह अड़चन होती है।
    ऐसा समाज होना
    चाहिए कि कोई आधी
    रात भी घूमे तो घूम सके।
    यह रात हमारी है,
    यह चांद हमारा है,
    ये तारे हमारे हैं।
    मगर भारतीय स्त्रियों
    ने तो सदियों पहले
    ही यह अधिकार छोड़ दिया है।
    वे तो पति के पीछे छाया
    की तरह चलती हैं।
    वे तो पति की दासी हैं,
    पति उनका रक्षक है।
    अकेले घूमने निकलने का
    तो सवाल ही नहीं उठता।
    पहले तो घूमने निकलने
    का सवाल ही नहीं उठता-
    और रात में!
    यह तो सवाल ही नहीं है।
    और अगर कभी स्त्री
    निकलेगी भी दिन की भर –
    दुपहरी में तो भी पति
    को साथ लेकर निकलती है,
    भाई को साथ लेकर निकलती है।
    यहां भाई को हर वर्ष
    रक्षा-बंधन बांधा जाता है
    कि ‘हे भैया, साल- भर
    हमारी रक्षा करना!’…
    किससे रक्षा करना?
    भारतीय संस्कृति से
    रक्षा करना!
    ये चारों तरफ जो
    धूर्तों का जाल है,
    इससे रक्षा करना!
    अपमानजनक है।
    कोई सम्मानपूर्ण स्त्री भाई
    को रक्षा-बंधन नहीं बाधेगी
    क्योंकि रक्षा की
    आकांक्षा करना पुरुष से,
    स्त्री की गरिमा को खोना है।
    मेरे पास कभी कोई
    आ जाता है कि
    राखी बांधनी है आपको।
    ‘किसलिये’?
    ‘कि आप रक्षा करना।
    ‘रक्षा की बात ही
    क्यों उठती है?
    रक्षा किससे करनी है?
    मगर सदियों -सदियों से
    भारतीय स्त्री को
    यह सिखाया गया है।

    -ओशो

    हंसा तो मोती चुगैं,
    प्रवचन-५, ओशो

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