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    सुसंस्कृत आदमी का कोई पड़ोसी ही नहीं है, पड़ोस तो प्रेम से बनता है- ओशो

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    सुसंस्कृत आदमी का कोई पड़ोसी ही नहीं है, पड़ोस तो प्रेम से बनता है- ओशो

                    जीसस ने कहा है—कौन है पड़ोसी? क्योंकि जीसस बहुत जोर देते थे इस बात पर कि पड़ोसी से प्रेम करो, तो ही तुम परमात्मा से प्रेम कर पाओगे। अपने प्रेम को थोड़ा बढ़ाओ, फैलाओ सब तरफ; आस—पड़ोस प्रेम को फैलाओ। कौन है पड़ोसी? एक दिन उनके शिष्य ने पूछा कि आप किसको पड़ोसी कहते हैं? तो जीसस ने कहा—एक आदमी निकलता था एक सुनसान रास्ते से, डाकुओं ने हमला किया, उसे लूट लिया, उसको छुरे मारे। उसको कई घावों से भरकर पास के गड्डे में फेंक दिया। फिर उसके गांव का ही पादरी वहा से गुजरा—रबाई—उसने देखा इस आदमी को, यह इसके गांव का ही आदमी था, इसके ही मंदिर में प्रार्थना करने आता था—यह मंदिर में ही प्रार्थना करने जा रहा था—इसने देखा—घाव से भरे, कराहते। उस आदमी ने कहा कि मुझे बचाओ; मैं मर रहा हूं; मुझे उठाओ। लेकिन उसने कहा कि अगर मैं तुम्हें उठाऊं तो मैं झंझट में पडूगा; पुलिस पीछे पड़ेगी—क्या हुआ? कैसे हुआ? किसने मारा? तुम वहां क्या कर रहे थे? तुम्हारा कुछ हाथ तो नहीं है? फिर अभी मुझे मंदिर जाना है, मैं प्रार्थना करने जा रहा हूं। यह बेवक्त की झंझट कौन सिर ले! मंदिर की जगह पुलिस— थाने जाना पड़े! फिर इसको अस्पताल ले जाओ, फिर मर—मरा जाए, फिर न—मालूम कौन झंझट खड़ी हो। उसने तो पीठ फेर ली और चल पड़ा। फिर दूसरे गांव का एक आदमी पास से गुजर रहा था, जिसने इस आदमी को कभी देखा भी नहीं, वह पास आया, उसने इसे अपने गधे पर बिठाया, इसके घाव धोये, इसको पास की धर्मशाला में ले गया, वहा भोजन कराया, वहा इसे लिटाया चिकित्सक को बुलाया—और यह इस आदमी को जानता भी नहीं था।
                    तो जीसस ने पूछा अपने शिष्यों से—तुम किसको पड़ोसी कहते हो? वह पुरोहित पड़ोसी था, जो पड़ोस में ही रहता था, या यह अजनबी आदमी पड़ोसी है, जिसने इसे कभी देखा नहीं था? शिष्यों ने कहा—स्वभावत: यह अजनबी आदमी पड़ोसी है। तो जीसस ने कहा : जंहा प्रेम है, वहा पड़ोस है। जीता बड़ा प्रेम है, उतना पड़ोस है। अगर प्रेम बड़ा हो तो सारी पृथ्वी पड़ोस है। और प्रेम बड़ा हो तो सारा ब्रह्मांड पड़ोस है। प्रेम की सीमा पड़ोस की सीमा है। प्रेम यानी पड़ोस।
                   जैसे—जैसे शिक्षा बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, प्रेम संकुचित होता जाता है। तयोपक्षयाच्च। इसलिए ज्ञान भक्ति मे सहयोगी तो होता ही नहीं, बाधा होता है।

    -ओशो

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