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    भीतर तुम वही एक हो आदित्यवत - ओशो

     
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    भीतर तुम वही एक हो आदित्यवत - ओशो

         मैंने सुना है कि एक कुत्ता एक राजमहल में प्रवेश कर गया भूल—चूक से रात वहीं बंद रह गया, सुबह मरा हुआ मिला क्योंकि राजमहल के जिस कमरे में बंद रह गया था, वह दर्पणों से बना था; उस कमरे में दर्पण ही दर्पण लगे थे सारी दीवालें दर्पण से ढकी थी; जब उस कुत्ते ने आंख खोली और चारों तरफ देखा तो वह घबड़ा गया इतने कुत्ते उसने अपने जीव में कभी देख नहीं थे

    स्वभावत: घबड़ाहट में भौंका
    कुत्ता था और करता भी क्या?
    सारे कुत्ते भौंके! फिर तो उसने होश खो दिया
    फिर तो वह इस कुत्ते की तरफ झपटे कि सारे कुत्ते उसकी तरफ झपटे
    वह रात भर भौंकता रहा और दर्पणों से लड़ता रहा
    सुबह लहूलुहान, दर्पणों पर भी उसके खून के चिंह थे और उसकी लाश पड़ी थी कमरे में
    तुम किससे लड़ रहे हो?
    और यहां दुश्मन है?
    तुम किससे भौंक रहे हो?
    किसके लिए भौंक रहे हो?
    यहां दर्पण—दर्पण हैं
    एक ही बहुत रूपों में झलक रहा है
    आर वह एक तुम्हारे भीतर विराज मान है
    तुम्हारे बाहर भी, तुम्हारे भीतर भी
    जरा उपाधि से मुक्त हो जाओ और उसे देखो
    और उपाधि से मुक्त होने मैं क्या अड़चन है! क्योंकि उपाधि सिर्फ थोपी हुई है जैसे तुमने वस्त्र पहन रखे हैं, फिर भी भीतर तो तुम नंगे ही हो न! कितने ही वस्त्र पहन लो, नंगापन मिट नहीं जाता वस्त्रों से, सिर्फ अंदर छिप जाता है ऐसे ही उपाधिया ऊपर—ऊपर होती हैं, भीतर तो तुम नग्न ही हो
    भीतर तो तुम दिगंबर ही हो
    उपाधियों के पार तुम अभी भी निरुपाधि हो
    मनुष्य के भीतर भी अभी तुम परमात्मा हो
    स्त्री के भीतर, पुरुष के भीतर, हिंदू—मुसलमान के भीतर तुम वही एक हो
    आदित्यवत

           जैसे सूर्य अलग—अगल जल सरोवरों में झलकता है, ऐसे ही वह एक अलग—अलग उपाधियों के दर्पण में झलका है उस एक कोई पहचानो उस एक के पहचानते ही युद्ध मिट जाता है, हिंसा मिट जाती है, वैमनस्य मिट जाता है, वैर, क्रोध, सब मिट जाता है उस एक ही पहचान के साथ फिर आनंद के सिवाय और बचता क्या है! फिर रास ही रास है फिर रंग ही रंग है। रस ही रस। ‘रसौ वै सःह. उसका रस तुम्हें तभी अनुभव होगा
    और जब तक उसका रस अनुभव न हो, तब तक सारे अनुभव व्यर्थ हैं

    -ओशो

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