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    फेहरिस्त - ओशो

    फेहरिस्त - ओशो

    फेहरिस्त - ओशो

                मैं एक यात्रा में था। गर्मी के दिन थे और उस वर्ष वर्षा नहीं हुई थी उस इलाके में। स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी, एक आदमी दस-दस पैसे में एक गिलास पानी बेच रहा था। दस पैसे में एक गिलास ठंडा पानी, कहता हुआ वह बढ़ता जाता, पैसे इकट्ठे करता जाता। एक आदमी जो मेरे पास ही बैठा था डिब्बे में, उसने कहा, आठ पैसे में न दोगे? वह पानी बेचने वाला रुका ही नहीं, उसने कहा, फिर तुम्हें प्यास ही नहीं लगी।

                जब प्यास लगी हो, तो कोई दस पैसे, आठ पैसे की बात करता है! यह तो प्यास न लगे हुए लोगों की बातें हैं। वह मुझे जंच गई बात; उसने ठीक कहा कि दो पैसे की फिक्र करोगे तुम, जब प्यास लगी हो? तब आदमी सब देने को तैयार हो सकता है। हिसाब-किताब तभी तक चलता है जब तक प्यास न लगी हो।

                तुम कहते हो तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो--ये सब प्यास न लगे होने की बातें हैं। जब प्यास लगती है तो कौन हिंदू, कौन मुसलमान, कौन ईसाई? जब प्यास लगती है तो तुम परमात्मा को मांगते हो--मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे से कोई लेना-देना नहीं रह जाता। इनसे कहीं प्यास बुझी है? और जब प्यास लगती है तो तुम हिसाब-किताब नहीं लगाते।

                त्याग का यही अर्थ है, संन्यास का यही अर्थ है कि तुम्हें प्यास लगी है और तुम सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हो।

                लोग कहते हैं--हां, परमात्मा को भी जानना है, लेकिन अभी और दूसरे काम करने को भी बाकी हैं; अभी और उलझनें हैं,उनको सुलझा लें। लोग परमात्मा को आखिर में टालते जाते हैं। वह तुम्हारी जरूरतों के क्यू में बिलकुल अंत में खड़ा है। और जरूरतों का क्यू कभी पूरा नहीं होता, वह अंत में ही खड़ा रह जाता है। तुम समाप्त हो जाओगे, तुम उसके पास कभी पहुंच न पाओगे। एक जरूरत पूरी नहीं होती कि दस पैदा हो जाती हैं; एक आकांक्षा भर नहीं पाती कि हजार पैदा हो जाती हैं; वह हमेशा पीछे ही खड़ा रहता है; वह इंच भर नहीं सरक पाता।

                तुम्हारे जो जीवन की फेहरिस्त है, उस पर परमात्मा अंतिम है या प्रथम है, इस पर सब कुछ निर्भर करेगा। जिसकी फेहरिस्त में वह अंतिम है, वह मूढ़ है; और जिसकी फेहरिस्त में वह प्रथम है, वह अमूढ़ है; वह जागने लगा; उसने एक बात ठीक से समझ ली है कि इस जीवन में मैं कुछ भी इकट्ठा कर लूं, मौत उसे छीन लेगी। और जो छिन ही जाना है, उसे इकट्ठा करने में समय गंवाना व्यर्थ है।

    -ओशो

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