कबीर का बेटा था : कमाल - ओशो
कबीर का बेटा था : कमाल - ओशो
कबीर का बेटा था : कमाल। कबीर ने उसे नाम ही 'कमाल' दिया—इसीलिये कि कबीर से भी एक कदम आगे छलांग ली उसने। कबीर का ही बेटा था, आगे जाना ही चाहिये। वह बेटा ही क्या जो बाप को पीछे न छोड़े! हर बाप की यही आकांक्षा होनी चाहिये कि मेरा बेटा मुझे पीछे छोड दे। हर गुरु की यही आकांक्षा होनी चाहिये कि मेरा शिष्य मुझे पीछे छोड दे। यही उसकी सफलता है। यही उसका सौभाग्य है।
कबीर के पास लोग धन ले आते चढ़ाने, सोना ले आते। कबीर कहते, 'नहीं भाई, यह सब तो मिट्टी है। इस मिट्टी को क्या करेंगे, ले जाओ!' कमाल कबीर के झोंपडे के बाहर ही बैठा रहता। वह कहता, 'भैया, मिट्टी लाए और मिट्टी फिर ले जा रहे! अरे रख जाओ, मिट्टी ही है! जब मिट्टी ही है तो कहां ले जा रहे हो? एक तो लाने की भूल की, अब कम से कम दूसरी तो भूल न करो। रख दे, रख दे!'
कबीर को लोगों ने शिकायत की, कि आप ऐसे महात्यागी और यह लड़का तो शैतान है! आप तो भीतर से कह देते हो लोगों को कि यह मिट्टी है, ले जा भाई, हम क्या करेंगे, हम तो फकीर आदमी हैं; और यह लोगों से कहता है कि 'अरे मिट्टी है, कहां ले जा रहे हो? एक तो यहां तक ढोयी, यह कष्ट सहा; अभी भी अज्ञान में पड़े हो? अरे छोड़ दे, रख दे! यहीं रख दे!' रखवा लेता है।
कबीर ने कहा, 'यह बात तो ठीक नहीं।’ कमाल को कहा कि यह बात ठीक नहीं। कमाल ने कहा, ' आप ही कहते हो कि मिट्टी है, तो फिर बात ठीक क्यों नहीं? बेचारों ने यहां तक ढोया, अब उनको फिर ढोने के लिये कह रहे हो! कुछ तो दया करो! अरे, दया ममता तो होनी ही चाहिये फकीर में, संन्यासी में!'
कबीर ने कहा कि मेरी तेरी नहीं बनेगी, तू अलग ही एक झोपड़ा बना ले। तो उसने अलग ही झोपड़ा बना लिया। काशी नरेश कबीर के पास आते थे, उन्होंने पूछा, बहुत दिन से कमाल दिखाई नहीं पड़ता; वह तो बाहर ही बैठा रहता था। कबीर ने कहा, 'उसे अलग कर दिया, क्योंकि वह लोगों से धन—पैसा ले लेता था।’
काशी नरेश ने कहा कि देखें, परीक्षा करें। वे गये एक बडा बहुमूल्य हीरा लेकर। कमाल बैठा था अपने झोपड़े में। उन्होंने हीरा चढ़ाया। कमाल ने कहा, ' अरे, क्या पत्थर लाए! न खा सकते, न पी सकते, क्या पत्थर लाए! कुछ लाते काम की चीज।’
काशी नरेश ने सोचा, यह तो बात बड़ी गजब की कह रहा है और उसको कबीर ने अलग कर दिया! उसने उठाकर—वह अपने हीरे को वापिस अपनी जेब में रखने लगे। अरे, कमाल ने कहा, अब छोड़ दों—अरे मूरख, यहां तक ढोया पत्थर, अब कहा ले जा रहा है, रख!तब काशी नरेश ने समझा कि यह तो आदमी होशियार है! यह तो बड़ा. अब इससे कुछ कह भी नहीं सकते, क्योंकि इनकार ही अगर करना था कि पत्थर नहीं है तो पहले ही करना था। पहले तो ही भर ली कि ही भई, है तो पत्थर ही, अब कैसे इनकार करें, किस मुंह से इनकार करें? इसने तो खूब फंसाया।
तो काशी नरेश ने पूछा, 'कहां रख दूं?' कमाल ने कहा, 'वही गलती, गलती पर गलती। अरे पत्थर को कोई पूछता है, कहां रख दूं? अभी भी तुम हीरा ही मान रहे हो? अरे कहीं भी रख दो, जहां रखना हो। या पड़ा रहने दो जहां पड़ा है। रखना क्या?'
मगर काशी नरेश भी तय करके आया था कि परीक्षा पूरी कर लेनी उचित है। तो उसने... बहुमूल्य हीरा था, मुश्किल था उसको पड़ा देना... छप्पर में खोंस दिया। पंद्रह दिन बाद लौटा। सोचा उसने कि मैं इधर बाहर लौटा कि इसने हीरा निकाला। पंद्रह दिन बाद वापिस लौटा, इधर उधर की बात की, आया तो पता लगाने था हीरे का। पूछा कि मैं पंद्रह दिन पहले हीरा लाया था, क्या हुआ, हीरे का क्या हुआ? कमाल ने कहा, 'गजब करते हो! कैसा हीरा? कब लाए थे? मैंने तो नहीं देखा।’
काशी नरेश ने कहा, 'अरे हद्द! मेरे सामने ही झूठ बोल रहे हो! मेरा वजीर भी मौजूद था, मैं उसको साथ लेकर आया हूं गवाह। तो कबीर ठीक ही कहते हैं कि यह आदमी गड़बड़ है।’
कमाल ने कहा, 'कि अरे, तुम उस पत्थर की बात तो नहीं कर रहे जो एक दिन लाए थे, पंद्रह बीस दिन पहले? उसी पत्थर को हीरा कह रहे हो, अभी भी हीरा कह रहे हो? यह तो तय हो गया था, यह तो निर्णय हो चुका था, पत्थर है।’
काशी नरेश ने कहा, 'हां निर्णय हो गया था, मैं उसको खोंस गया था झोपड़े में। तूने निकाला होगा।’
कमाल ने कहा, 'मुझे क्या पड़ी निकालने की? तुम देख लो। अगर कोई और निकालकर ले गया हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मैं कोई पहरेदार नहीं हूं यहां तुम्हारे पत्थरों का। और अगर किसी ने न निकाला हो तो होगा झोपड़े में। नरेश चकित हुआ देखकर, हीरा वहीं के वहीं झोपड़े में खुसा हुआ था। पैरों पर गिर पड़ा कमाल के और कहा, 'मुझे क्षमा कर दो।’ पर उसने कहा, 'इसमें क्षमा करने की बात ही क्या है? तुम गलती ही गलती किये चले जा रहे हो। अरे पत्थर है, उसको मैंने नहीं निकाला तो इसमें खूबी की क्या बात है? पत्थर तो बाहर बहुत पड़े हैं। कोई पत्थर बीनने के लिये यहां बैठा हूं। यहां पैरों पर किसलिये पड रहे हो? अगर तुम उसे हीरा ही मानते हो तो भैया ले जाओ और दुबारा इस तरह की चीजें यहां मत लाना।’
हिम्मत तो नहीं पड़ी, ले जाने की काशी नरेश की। लेकिन यह कमाल कबीर से भी गहरी बात कह रहा है। अगर तुम्हें दिखाई पड़ने लगा कि सोना मिट्टी है, तो फिर मिट्टी और सोने में फर्क ही कहा रह जाएगा? फिर समता का सवाल ही कहां है? अगर सफलता और असफलता सच में ही समान हो गये तो किसको सफलता कहोगे, किसको असफलता कहोगे? किसको प्रशंसा, किसको अपमान?
कमाल ने कहा, 'मुझे क्या पड़ी निकालने की? तुम देख लो। अगर कोई और निकालकर ले गया हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मैं कोई पहरेदार नहीं हूं यहां तुम्हारे पत्थरों का। और अगर किसी ने न निकाला हो तो होगा झोपड़े में। नरेश चकित हुआ देखकर, हीरा वहीं के वहीं झोपड़े में खुसा हुआ था। पैरों पर गिर पड़ा कमाल के और कहा, 'मुझे क्षमा कर दो।’ पर उसने कहा, 'इसमें क्षमा करने की बात ही क्या है? तुम गलती ही गलती किये चले जा रहे हो। अरे पत्थर है, उसको मैंने नहीं निकाला तो इसमें खूबी की क्या बात है? पत्थर तो बाहर बहुत पड़े हैं। कोई पत्थर बीनने के लिये यहां बैठा हूं। यहां पैरों पर किसलिये पड रहे हो? अगर तुम उसे हीरा ही मानते हो तो भैया ले जाओ और दुबारा इस तरह की चीजें यहां मत लाना।’
हिम्मत तो नहीं पड़ी, ले जाने की काशी नरेश की। लेकिन यह कमाल कबीर से भी गहरी बात कह रहा है। अगर तुम्हें दिखाई पड़ने लगा कि सोना मिट्टी है, तो फिर मिट्टी और सोने में फर्क ही कहा रह जाएगा? फिर समता का सवाल ही कहां है? अगर सफलता और असफलता सच में ही समान हो गये तो किसको सफलता कहोगे, किसको असफलता कहोगे? किसको प्रशंसा, किसको अपमान?
मेरा स्वर्णिम भारत,
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