एक ही सूत्र को स्मरण रखो: ध्यान...- ओशो
एक ही सूत्र को स्मरण रखो: ध्यान...- ओशो
ध्यान विधि है स्वयं के आविष्कार की, स्वयं के अनावरण की, बहुत सी धूल-धवांस में दब गये हो, ध्यान उस धूल-धवांस को पोंछ देता है। जैसे दर्पण पर धूल जम जाए और दर्पण धूल में ही खो जाए। ध्यान का इतना ही अर्थ है। निर्विचार हो जाने की कला। और जिसके हाथ में निर्विचार होने की कला गयी, सोने की कुंजी आ गयी, जो सब ताले खोल दे। मैं तुम्हें ध्यान दे सकता हूं, ज्ञान नहीं दे सकता। इस भेद को ठीक से समझ लो। पंडित-पुरोहित तुम्हें ज्ञान देते हैं, ध्यान नहीं। और ज्ञान बासी है, उधार है, तुम्हारा नहीं, किसी काम का नहीं। मैं तुम्हें ध्यान देता हूं--सिर्फ खोदने की विधि, एक कुदाली, कि ये रही कुदाली, इससे खोदो, अपना कुंआ बनाओ। यह बात कुछ ऐसी है कि आने कुएं से ही पानी पी सकोगे। किसी और के कुएं से कोई पानी नहीं पी सकता। यह कुआं भीतर है। और यह प्यासा भी भीतर है। दूसरे का कुआं बाहर होगा; और बाहर का कुआं और भीतर की प्यास को कोई मिलन नहीं होता।
शास्त्रों में तो सब सत्य पड़े हैं, सदगुरुओं ने तो सारी बातें कह दी हैं, कहने को कुछ बचा नहीं है; कुछ जोड़ा जा सके, ऐसा कुछ शेष नहीं रहा है, लेकिन फिर भी क्या सार मिलता है? गीता कंठस्थ हो जाती है, तुम कृष्ण तो नहीं होते! अगर गीता ही कंठस्थ होने से कोई कृष्ण होता, तो कितने लोग कृष्ण न हो गये होते। धम्मपद तो कंठस्थ हो जाता है लेकिन बुद्ध नहीं होते तुम। नहीं हो सकते हो। हालांकि तुम भी वही बोलने लगते हो जो बुद्ध बोलते थे। ठीक वैसा ही। वही शब्द, वही भावभंगिमा। वैसे ही उठ सकते हो, वैसे ही बैठ सकते हो, वैसे ही कपड़े पहन सकते हो, वैसा ही भोजन कर सकते हो, सब चर्या वैसी ही बना सकते हो, मगर फिर भी सब ऊपर-ऊपर रहेगा, नाटक रहेगा।
बाहर के सत्य ऐसे हैं कि बाहर से मिल जाते हैं। मगर भीतर का सत्य तो बार-बार खोजना पड़ता है, प्रत्येक को अपना खोजना होता है। यही इसका सौंदर्य भी है। क्योंकि यह सदा नित नूतन होता है, यह भी पुराना नहीं पड़ता। जब भी तुम चखोगे तब यह किसी और का चखा हुआ नहीं होगा। यह बासी नहीं होगा, जूठा नहीं होगा। यह सत्य बिलकुल ही नया होगा। एकदम ताजा होगा। तुम्हारा होगा।
मैं तुम्हें ज्ञान नहीं दे सकता। ज्ञान चाहिए, पंडित-पुरोहितोंसे पूछो। वे तुम्हें ज्ञान देंगे। यहां आए हो, ध्यान पूछो। रास्ता बता सकता हूं; कैसे चलो, यह बता सकता हूं; लेकिन पहुंच कर क्या मिलेगा, वह अनिर्वचनीय है। शब्दों में समाता नहीं। भाषा एकदम नपुंसक है। उसे तो केवल मौन में ही समझा जा सकता है। मौन हो जाओ और समझो
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