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    सिकंदर और दो कौड़ी का साम्राज्य - ओशो


    सिकंदर और दो कौड़ी का साम्राज्य

    सिकंदर से एक ज्ञानी ने कहा कि तूने इतना बड़ा साम्राज्य बना लिया, इसका कुछ सार नहीं है, मैं इसे दो कौड़ी का समझता हूं। सिकंदर बहुत नाराज हो गया। उसने उस फकीर को कहा : इसका तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना होगा, अन्यथा गला कटवा दूंगा। तुमने मेरा अपमान किया है। मेरे जीवन- भर का श्रम और तुम कहते हो कुछ भी नहीं, दो कौड़ी!

    उस फकीर ने कहा : तो फिर ऐसा समझो कि एक रेगिस्तान में तुम भटक गए हो। प्यास लगी जोर की, तुम मरे जा रहे हो। मैं मौजूद हूं मेरे पास मटकी है, पानी भरा हुआ है स्वच्छ। लेकिन मैं कहता हूं कि एक गिलास पानी दूंगा, लेकिन कीमत लूंगा। अगर मैं आधा साम्राज्य तुमसे मांगूं तुम दे सकोगे?

    सिकंदर ने कहा कि अगर मैं मर रहा हूं और रेगिस्तान में हूं और प्यास लगी है तो आधा क्या मैं पूरा दे दूंगा। तो उस फकीर ने कहा, बात खतम हो गयी, एक गिलास कीमत… एक गिलास पानी कीमत है तुम्हारे साम्राज्य की। और तुम कहते हो, दो कौड़ी! दो कौड़ी भी नहीं है, क्योंकि पानी तो मुफ्त मिलता है।

    जीवन बचाने के लिए सिकंदर अपना पूरा साम्राज्य देने को राजी है; लेकिन तुमने जीवन पाया है, इसके लिए तुमने धन्यवाद दिया? जिसके लिए तुम पूरा साम्राज्य दे सकते हो सारी पृथ्वी का, वह तुम्हें मुफ्त मिला है-और तुमने धन्यवाद भी नहीं दिया है, तुमने कृतशता भी स्वीकार नहीं की!

    तुम्हें कितना मिला है, जरा सोचो! तुम्हारे हृदय में प्रेम की संभावना है, तुमने धन्यवाद दिया? तुम्हारे कंठ में से गीत पैदा हो सकते हैं, तुमने धन्यवाद दिया? तुम्हारी आंखें खुलती हैं और तुम जगत के अपूर्व सौंदर्य को देख सकते हो, तुमने धन्यवाद दिया? जरा किसी अंधे आदमी से पूछो कि अगर तुझे आंखें मिल जायें तो तू क्या देने को तैयार है? वह कहेगा, मैं अपना सब कुछ देने को तैयार हूं आंखें मिल जायें, बस आंखें मिल जायें। मैं क्या है जो बचाऊं, सब दे दूंगा|

     - ओशो 

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